मुद्रक तथा प्रकाशअक--मीतीलाल चाल्यन) गीताग्रेस, गोरखपुर ।ऋधाइन्बदय > जज ऑ रनीयनकक-म दरिकअमन मछ के के >ती -७ [ भारत-सरकारद्वारा डपरूब्ध कराये गये रियायती मुल्यके कागजपर मुद्वित ] सन. १९९८ सं "रएल ३५ तक ३३२८,२०० रं० २०२६ चोबीसवाँ गंस्फकरण . २०,००० सं० २०३२६ पनीर रसल्फरण २०,००० बृल ३,६८,२५०० तीन लाख अडसठ इजार दो सो पचास न्‍बवक७ अनलनान -+त पता--गीताग्रेस, पो० गीताप्रेस ( गोरखपुर ) है अआीटरि; है] को प्रधम सम्करणका निवंदन बहन दिनॉलि विद्यार था फ्ि प्राचीन कालके कुछ आदर्श पुरुपाक्री जीवनियाँ आर उनके उपंद्श संक्षेप निकाले जायें। परंतु ट्लकी काई व्यवस्था नहीं हो सकी थी । अब पँ० आंशास्तनुविदारीजी द्िबदीन ऋपापृथक्कत इस कामको स्वीकार कर लिया भार उसीके फन्टस्वन्प यट्ट 'थादर्श चरितमाला' का प्रथम पृष्प भक्तराज़ हनुमान! सापके हायमें है। इस्समेंकी अधिरांश बातें तो बाल्मीकीय रामायण, अ्रध्यान्मगमायण, गमचरिनमानस, प्मपुराण और ब्रह्माण्ठपुराण आदि प्रन्धोंसि सा गया ४ । कुछ बयान परम्परास सती हुई है । सम्भव ॥ थे भी झिसी प्रन्थम्म हों। भागा है। पाठक भक्तप्रवर श्रीटनुमानजी- के पवित्र पुण्य जीवनका पढ़कर प्रसन्न होंग । हनुमानप्रसाद पोदर सम्पारर्ट हा जि क न 7 है 2 95 ७७ | * ६५० ह हल ५.००, पु, ४» ->४+.० दा ' रू क 55 $ 3 ऐ ५ | ५. हर पल 8 कि १ )। 5. 02) २०७. + 42 4 हल /“ण्ड बज क्त ५ 3] डी 20082 8५ ] ३ ;:९४७ 22,6% ६ न] ) ६३... बी] | रण बन हू पर ७ ०००४% “' कि ी--नो ्छ हक है... - ३६ “०६ ००७7 न] * पर री फिक्प टला जप ५ (53052 ;>* 5६ कि रे औ ०४३५ अंडर 6 हि ध्ध नहर (३ न? 0५ ८: पी १०. हज 'भ 4, ३! 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आज मेरे मनर्मे एक बड़ा ही शुभ संब्ान्प उठ खा ढे। ने सोच ब्यव किया करता हू. जिनके न 22४ ३० अआक #7 ०७७ ह कि जनक ्र में निरतर दामोंद्नी गठनठथार गंदगढ़ होता भक्तराज़ दश्चमान्‌ हि रहता हूँ, जिनके वास्तविक खरूपका स्मण करके में समाविस्य हो जाता हूँ, वें ही मेरे भगवान्‌. वे ही मेरे प्रभु अवतार ग्रहण करके संसारमें आ रहे हैं । सभी देवता उनके साथ अवतार लेकर उनकी सेवाका सुयोग ग्राप्त करना चाहते हैं, तब में ही क्यो वश्चित रूँ ! मैं भी वहीं चढूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युगकी छाल्सा पूर्ण करूँ. अपने जीवनकों सफल बनाऊँ ।' मगवान्‌ शंकरकी यह बात सुनकर सती सहसा यह ने सोच सकी कि इस समय क्या उचित हैं और क्‍या अनुचित | उनके मनमें दो तरहके भाव उठ रहे थे | एक तो यह कि मेरे पतिदेवकी अमिलावा पूर्ण होनी चाहिय और दृस्तरा यह कि मुझसे उनका वियोग न हो । उन्होंने कुछ सोचकर कह्दा--'प्रमो ! आपका संकल्प बड़ा द्वी छुन्दर है---जैंस में अपने इष्द्वर्की--- आपकी सेवा करना चाहती हूँ. बेंसे ही आप मी अपने इश्टदेबकी सेवा ऋरना चाहते हैं | परंतु वियोगके मयसे मेग हृदय न जाने केसा हुआ जा रहा हैं | आप कृपा करके मुझ एसी झक्ति दे कि मेरा हृदय आपके ही सुखमें सुख मानने छंग | एक वात और है. भगवानका अवतार इस बार राबणको मारनेके छिये हो रहा हैं. वह आपका बड़ा भक्त हैं; उसने अपने सिरतक काटका आपको चढ़ाय हैं। ऐसी स्थिति- में आप उसको मारनेके काममें केसे सहायता कर सकते है ?' भगगन्‌ शंकर दँसने छा | उन्होंने कह्या---देत्ि ! तुम बड़ी मोती हो | इसमें वियोगकी तो कोई जान ही नहीं है। में के होक ७ ७ ७ ध्ड गा न का उनकी संत्रा कस्ूगा शरीर एथ ऋपसे ऊ भ्रकराज इलुमान्‌ तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें उनकी छीछाएँ दिखाऊँगा और समय- समयपर उनके पास जाकर उनकी स्तुति-आयथना करूँगा । रह गयी तुम्हारी दूसरी बात, सो तो जेंसे रावणने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अशकी अबहेलना भी की है | तुम तो जानती ही हो, मै प्यारह खरूपोमे रहता हूँ | जब उसने अपने दस मिर चढाकर मेरी प्रजा क्री थी, तव उसने मेरे एक अंशको बिता पूजा किये ही छोड़ दिया था । अब मै उसी अशके रूपमें उसके विरुद्ध युद्ध कर सकता हूँ और अपने प्रमुकी सेवा भी कर सकता हूं । मैने वायु देवताके द्वारा अज्ञनाके गर्मसे अबतार लेनेका निश्चय किया है | अब तो तुम्हारे मनमें कोई दुःख नहीं है न! भगवती सती प्रसन्न हो गयीं। रे २५ >८ ८ देवराज उच्द्रकी अमराबतीमें एक पुश्चिकस्थव्य नामकी अप्सरा थी । एक दिन उससे कुछ अपराध बन गया, जिसके कारण उसे बानरी होकर प्रध्वीपर जन्म छेना पड़ा । शाप देनेवाले ऋषिने बडी प्राथनाके वाद इतना भनुग्रह कर दिया था कि वह जब जेंसा चाहे, बैसा रूप घारण कर ले | चाहे जब वानरी रहे, चाहे जब मानवी | वानरराज केसदने उसे परनीके रूपमें प्रहण किया था | वह बड़ी छुन्दरी थी और केसरी उससे बहुत ही प्रेम करते थे । एक दिन दोनों ही मलुप्यक्रा रूप चरण करके अपने सज्यम सुमेद्के झड्ोयर विवरण कर रहे थे | मन्द-मन्द वायु बंद रबठा था | बायुके एक इल्के-से झोकेसे अज्ञनाकी साडीका भक्तराज हनुमान ८ न ७७ ् कोई क् स्प्श पक्का उड॒ गया । भज्ञनाकों ऐसा माह्ठम हुआ कि मुझे कोई स्पर रू कर रहा हैं | वह अपने कपड़ेको सम्हाठती हुई ग्बड़ी गयी । उसने डाँटल हुए कहा--“एसा ढीठ कौन हँ, जो मेरा पातितित्य नष्ट करना चाहता है. ! मेरे इछठेव पतिठेव मेर सामने विधमान हैं और कोई मेरा व्रत नष्ट करना चाहना है ! में अभी शाप देकर उसे भस्म कर दूँगी )! उसे प्रतीत इुआ मानो वायुठेव कह रहे हैं--.'दक्नि ! मैने नुम्हारा त्रत नष्ट नहीं किया हैं । देवि ! तुम्हें एक ऐसा पुत्र होगा, जो शक्तिमें मेरे समान होगा, बढ और चुद्धिमें उसकी समानता कोई न कर सकेगा | में उसकी रक्षा करूँगा, वह मगवानूका सेवक होगा !! तठनन्तर अज्ञना और केसरी अपने स्थानपर चले गये | भगवान्‌ शांकरने अंशरूपसे अश्ननाके कानके द्वारा उसके गर्भमें प्रवेश किया |'% ड़ अच्ठग हि | 9 ढ 2५ व रु म चेत्र शुक्म १५ महल्थारके दिन प अज्लनाके गर्भसे भगवानू शंकरने वानररूपसे अवतार अहण किया | अझ्नना और केसरीके आनन्दकी सीमा न रही | झुछृपक्षके चन्द्रमाके समान दिन-प्रति-दिन 3 अनिक नअ कक महल २: से कह: रकम कक रह जहि सगीर रति राम सां सोइ आदरहिं सुजान | रादेह तजि नेदह बस संकर में हनुमान ॥ जानि राम सेवा सस्स समुझि करत अनुमान। पृदया ते सेवक भए ते भे हनुमान ॥ ( दोह्यबछी १४२-१४३ ) न किर ीं-किन्हींके जे इनमानर्ज गरीके 5० तिथि कातिक हदानकिन्दक मतसे हनुमानजीकी जन्मतिथि कार्तिक कृष्णा | है. या कार्तिक ४४. आक्रा ९ है ४४ या कातिक शुक्का 2८० है हर भक्तराज़ हनुमान बढ़ते हुए बाल्कका छालन-पालन बड़े ही मनोयोगसे होने छगा | अञ्जना कहीं जाती तो उन्हें अपने हृदयसे सठा लेती, केसरी बाछककों अपनी पीठपर बैठाकर छत्केंगे मरते और अपने शिश्ुको आनन्दित देखकर खयं आनन्दमग्न हो जाते । एक दिन बच्चेको घरपर छोड़कर अज्लनना कहीं फल-फ्ूछ छानेके छिये चली गयी। केसरी पहलेसे ही बाहर गये हुए थे । बालक घरमें अकेला था और उसे भूख छगी हुई थी | उसने इधर- उधर देखा, पर उसे कोई चीज न मिठी । अन्तमें उसकी दृष्टि मयपर पड़ी । प्रातःकाछका समय था, उसने सोचा कि यह तो वड्डा सुन्दर छाल्-छाछ फछ हे | यह खाने-खंलने दोनो ही कामोमें आयेगा । बाढकने सूयतक पहुँचनेकी चेश की । वायुने पहले ही उसे उड़नेक्री शक्ति दे दी थी अथवा यो भी कह सकते हैं कि अगधान्‌ शंकरकी ठीछामें यह आश्चययकी कौन-सी वात है ! वह बालक आकाशझमें उड़ने छगा। देवता, दानव, यक्ष आदि उसे देग्व्‌कर विश्मित हो गये । वायुके मनमें भी शाझ्ला हुई । उन्होंने सोचा कि मेरा यह ननहा-सा वालक सूर्यकी ओर ढौड़ा जा रहा है| मब्याहकाल्के तरुण सूयकी प्रखर किरणोसे कहां यह जछ न जाय ! उन्होंने हिमालय और मल्याचलसे शीतलता इकट्ठी की और अपने पुत्रके पीछे-पीछे चलने रंगे । सुने भी देखा, उनकी दिव्य इृष्टिमं वालककी महत्ता छिपी न रही। उनके मनमें कई बातें आयीं, उन्होंने देखा कि खबं भगवान्‌ शंकर ही वानर-बाठकके वेश मेरे पास आ रहे हैं। वह वात भी उनसे छिपी न रही कि मेरे पितृतुल्य वायुदेवके आशीर्वादसे ही इस भक्तराज इनुमान हक बालकका जन्म हुआ है और वे स्वयं इसकी रक्षा करनेके हिये आ रहे हैं। उन्होंने अपनी कर-किरणें शीतल कर दीं, मानो वे अपने कमल करोंसे स्पश करके अपने छोटे भाईको दूलारने छगे | अथवा जगयिता शांकरको अपने पास आते देखकर उनका खागत करने छंगे | वह बालक सूके रथपर पहुँच गया । उनके साथ खेलने लगा | उस दिन था ग्रहण | अपना समय जानकर राष्ट्र सूथकों प्रसनके छिय आया । उसने ठेग्वा कि; एक बानर-बालक सूचके रस्थपर बठा हुआ हैं | पहल तो राहुने काई परचा नहीं की, पहलेकी भाँति ही सूथपर टूट पड़ा | परंतु जब बाछकके कणेर हाथोसे वह पकड़ डिया गया तथ बह भयभीत हो गया और किसी प्रकाश अपनेकों छुड़्ाकर भगा। वह सीधे दवराज इन्द्रके पास गया । उसने जाकर इन्द्रसे कहा--“ेवराज ! आपने सूथ्कों प्रसनका अविकार मुझे दिया है | क्या अब आपने किसी दूसरेको भी यह अधिकार दे दिया है ?' इन्द्रकी समझभे यह बात न आयी; उन्‍होंने राहुकों डॉय्कर फिर सूयके पास भेजा । दुबारा राहुके जानेफर वाल्ककी अपनी भूखकी याद आ गयी | उसने सोचा कि यह खानेकी अच्छी चीज है। बस, राहपर टूट पड़ा । राष्ट्र उस बाल्कके तेजसे डर॒ गया और अपनी रक्षाकरे स्यि इन्द्रको पुकारने लगा। इन्द्र ऐशाबतपर चढ़कर उसकी रक्षाके लिये दौड़े | ऐशबतको देखते ही बालकने राइको छोड़ टिया और वह उसे एक अच्छा-ता फल समझकर पकड़नेके लिये दौंड़ा | अब इन्द्रने डर- कर अपना चन्न फेंका, जिससे वाल्ककी वायी हसु ( हुई ) ११ भकराज इलुमान्‌ टूट गबी | बाठक घायलूः होकर पहाइपर गिर बड़ा और छटपटाने लगा | बायुदेव बालकको उठाकर गुफामे ले गये | उन्हे इन्द्रपर बड़ा क्रोव आया और उन्होंने अपनी गति बंद कर दी। वायुके बंद हो जानेसे सब काठ-सरीखे हो गय । त्रिलोकीमे कोई हिल- डुखतक नहीं सकता था। सबकी साँस बढ हो गयी। देवता लोग घबराये | इन्द्र दौंडे हुए त्रह्माके पास गये | उसी श्रण ब्रह्मा पर्ब॑तकी उस गुफामें आय और अपने हाथोंमे वालकका स्परश करके उसे जीवित कर दिया. बालक प्रसन्नताके साथ उठ खड़ा हुआ । वायुदेव बडे प्रसन्न हए और उन्होने सारे जगतमे प्राण- छंचार कर दिया । अह्माने देवताओंसे कहा कि 'यह बालक साधारण नहीं है | यह देवताओका कार्यसावन करनेके लिये ही प्रकट हुआ है, उसठ्यि यह उचित है कि सब्र देवता इसको वरदान दे ।! इच्रने कहा---'मेरे बन्रके द्वारा इसकी हनु टूट गयी हैं, इसलिये आजसे इसका नाम हनुमान्‌ होगा और मै बर दता हूँ कि मेरे बज़से हनुमानका कभी बार बॉका भी नहीं होगा ।' सूथने कहा -- पे अपना शताश तेज इसे देता हूँ । मेरी शक्तिसे यह अपना रूप बदल सकेगा और जब इसे शाखका अध्ययन करनेकी इच्छा होगी तो मैं सम्पूर्ण शाब्बोका अध्ययन कग दूँगा । यह बड़ा भारी बाग्मी होगा ? वरुणने अपने पाशसे और जलसे निर्भय होनेका वर दिया । कुबेर आदि देवताओंने भी अपनी-अपनी ओरसे इलुमानको निर्भय किया | विश्वकर्मनि अपने बनाये हुए दिव्याद्ोंसि | भ्क्तराज हनुमान १२ अवध्य होनेका वर दिया और अक्ाने ब्रह्मज्ञान रिया, विरायु करनेके साथ ही त्रह्माख और ब्रह्मशापसे भी मुक्त कर दिया । चलते समय ब्रह्माने वायुदेवसे कहा--:तुम्हारा पुत्र वड़ा ही वीर, इच्छानुसार रूप घारण करनेवाछा और मनके समान तीत्रगामी होंगा | इसकी गति अप्रतिहत होगी, इसकी कीर्ति अमर होगी ओर राम-रावण-युद्धमं यह रामका सहायक तथा उनका परम प्रीतिभाजन होगा / इस प्रकार हनुमानकों वर देकर सब दवता अपने-अपने घामकों चले गये | अज्लना और केसरीको यह सब्र सुनकर जो सुग्ब हुआ, वह सबंथा अनिवंचनीय हैं | (९ ० ८ बचपनमें हनुमान्‌ वड़े ही नटखट थे | एक तो बानर, दूसरे बच्चे और तीसरे वेवताओंसे प्राप्त इतना बल ! रुद्रका अंश तो था ही, ऋषियोके आसन उठाकर पेड़पर टाँग देते, उनके कमण्डछुका जल गिरा देते, उनकी लंगोटी फाड़ डालते । कभी-कभी किसीकी गोदमे वेठकर खेलते, एकाएक उसकी ढाढ़ी नोचकर भाग खड़े होते । उन्हें कोई बल्यूबक तो रोक सकता ही नहीं था, सव विवश थे । बड़े हुए, विद्याध्ययनका समय आ गया, परंतु इनकी चश्चछता जेसी-की-तेंसी वनी रही । अज्ञगा और केसरी बड़े ही चिन्तित हुए, ,उनसे जो कुछ उपाय हो सकता, उन्होंने किया; परंतु हनुमान्‌ राहपर न आये । उन्होंने ऋषियोंसे प्रार्थना की कि आप लोग कृपा कर, तभी यह वालूक सुधर सकता है । ऋषियोंने बिचार करके यह निश्चय किया कि इसे अपने बल्का वड़ा घमंड हैं। यदि वह अपना वछू भ्रर जाय तो काम बन सकता है । र्रे भक्तराज हनुमान उन्होंने हनुमानकों शाप दे दिया कि 'तुम अपने बढकों भूल जाओ । जब कोई कभी तुम्दे तुम्हारी कीर्तिकी याद दिल्यवेगा, तब तुम अपने बलका स्मरण करके पुनः ऐसे ही हो जाओगे ॥ हनुमान्‌ अपना बल भूल गये । अब उनके विद्याध्ययनका समय आया, वानराज केसरीने उचित संस्कार कराके वेदाध्ययनके लिये उन्हे सूयके पास भेज दिया । वहों जाकर हनुमानने समस्त वेढ-वेदाड्रोका अध्ययन किया । उन्हें अध्ययन तो क्‍या करना था, वे साक्षात्‌ शित्र थे; तथापि सम्प्रदाय-परम्पराकी रक्षा करनेके लिये उन्होने सम्पूर्ण विद्याओंका अध्ययन किया । थोड़े ही दिनोंम वे अपने माता-पिताके पास लोट आये । सूर्यकी कृपासे अपने पुत्रको सर्वविद्यापार्डत देखकर माता- पिताकों वड्शा आनन्द हुआ | भ५ ५ ८ >( भगवान्‌ राम अबती्ण हो चुके थे | भगवान्‌ शंकर उनकी बाल-दीछाका दर्शन करनेके लिये प्रायः ही अयोध्यामें भाते और अयोध्यामे ही रहते । वे किसी दिन ज्योतिषी वनकर भगवानका हाथ देखते तो किसी दिन मिक्षुक बनकर उन्हें आशीर्वाद ढते। जब भगवान्‌ राम खेलनेके लिये महलसे बाहर आने छगे, तब एक दिन एक मदारी आया । उसके साथ एक परम सुन्दर नाचनेवाला बंदर था | मढारी डमरू बजाता हुआ राजमहलके फाटकफ . जा पहुँचा । बहुत-से छड़के इकट्ठें हो गये, भगवान्‌ राम भी अपर भाव्योके साथ आ गये । यह बंदर साधारण बंदर थोडे ही था यह तो अपने भगवानकों सझानेके लिये ही हनुमानरूपमें प्रक भक्तराज हनुमान श्छ होनेवाले ख्र्य शिव थे । नाचनेवाले भी आप, नचानेवाले भी आप | यह सब किसलिये, केवछ अपने प्रभुकी मधुर छीछा देखनेके दिय, उनके साथ खेलनेके लिये और उनकी प्रसन्नताके लिये । आमिर भगवान रीज् गये । बंदरका नाच देखकर सब छोंग छौटने छगे, परतु भगवान्‌ राम अड गये । उन्होंने कहा कि में तो यह बरढर छोगा । राजकुमारका हठ भला कैसे ठाला जाता | महाराज दशरथने आजा दी कि बढरके बदलेमें मदारी जितना बन चाहे छे के, बदर मेरे स्यामसुन्दकों द जाय । मढारी धनके दिये तो आया नहीं था, बह तो आया था--अपने-आपको प्रभुके चरण-कऋमन्छमें समर्पित करनेके दिये ! भगवान्‌ रामने अपने हाथो उम ददरकों ग्रहण किया | अबतक वे अपने-आपको खर्य॑ नचा रहे थे और अत्र नचानेवाले हुए भगवान्‌ राम तथा नाचने- वाले हृणु खब ते | युग-युगकी अभिलापा पूरी हुई, ने आनन्द्रातिरेकसे नाचने छगे, सब लोग उस बदरका नाच देखनेमें तन्‍नय हो गये और मढारी छापता हो गया | पता नहीं, वह मदारी बंदरमे ही अवेश कर गया या अपना काम प्रा हो जानेफर केंठाश चत्ण गया । इस रूपमे हनुमान बहुत दिनोंतक भगवान्‌ रामकी सेवा और मनोरञ्ञन करते रहे । जब बविश्वामित्र राम और लछब्ष्मणको के जानेके लिय आये, तब भगवानने उन्हें एकान्तमे बुछाकर समझाया । उन्होने कहा---हनुमान्‌ ! तुम मेरे अन्तरड़ सखा हो, तुमसे मेरी कोई छील्य छिपी नहीं है । आगे चछकर मै रावणको है 75 ९ भक्तराज इनुमान भारँगा । उस समय मुझ वाब्मोंद्री आवश्यकता होगी | रावणने बडिकों मिला सकता हे | खर-दूपण, त्रिशिरा, शपणर्वा दण्डक- उनमें है: मारीब, सुबह. ताइका हमारे पड्केसमें ही हैं, उनका आठ चारों भोर ऊँचे है | तुम शबरीसे मिलकर ऋष्पप्तक कातपर जाओ और नर्स सुप्रीवसे कितना करों । में थीरे-ीरे रास्ता साफ़ काता हुआ बहा आाऊगा, नत्र तु सुमीवकों मुझसे मिलना और क्यों छ्ों एक्नित झश्तना । फिर रावणक्ों मारकर अबनार- कार्य पूरर किया आयात ।' * नंगवानकों छोदकर जानेकी टचब्छा न होनेपर भी हनुमानले ंधानूदी आधा मिब्राय की आर उनका नामस्मरण करते हुए - उन्होने ऋष्प्तक पलक डिये प्रस्थान किया । >>. अअकरे-+$--इफिपिलनीा (२) उन दिले बराहिसि नयभीन द्वाकर सुग्रीत्र अपने मन्त्रियोके साथ ऋष्यमक पबनक्त झते थे | दनुमान्‌ भी उन्हींके साथ थे । मुप्रीय शव: इस्ते दवा ठते थे कि की ब्राड्का भेजा हुआ कोई उसका मित्र जाकार दम स्क्रमम ने कर ३; क्योंकि शापक कारण ५ मय नद्त नदी ब्थ सकता था। एक दिन वे मल्रियो और अपने प्रिय संदचा दनुमानके साथ अरठकर कुछ राजनीतिक चर्चा 2 थे | एकाएक उसकी दृष्टि पंपामरकी ओर चरटी गयी । उसदोने झला कि कंढ़ा हो. समस व्यक्ति खड़े है। उनका उद्देश्य ते दीक-टीक नहों जान पढ़ता; परंतु ते किसीकी खोजमे सादुम ््ति भक्तराज हनुमान द्‌ पडते है। उनकी चाढ-ढाढ, उनका बीरोचित शरीर, उनके शत्र- अत और साथ ही उनके वल्कछ वस्र और जठाभेंकों देखकर सुग्रीककों वडी शह्का हुई । उन्होंने हनुमानसे कहा कि भाई ! पता छगाओ, थ दोनो वीर पुरुष कौन हैं ? यदि शत्रु-पक्षक हा ता यहसे भाग चलना चाहिये और यहि उदासीन हो तथा उन्हें भी किसी सहायताकी आवश्यकता हो तो उनसे मित्रता कर छी जाय और एक दूसग्की इए०-सिद्धिमे सहायक हो । तुम अह्मचारीका वेप धरकर उनका पता छगाओ । फिर जैसा हो, इश्ारेसे मुझे सूचित कर ठेना |? हसुमानने उनकी आज्ञा खीकार की । सुग्रीवके कहनेसे हनुमान्‌ त्राह्मणका वेश बनाकर उनके पास गय | उन्होंने योग्य झिशचारके पश्चात्‌ उन दोनोकी प्रशंसा करते हुए उनका परिचय पूछा । उन्होंने कहा--'आपके शल्लात्र ओर शरीरकी वीरोचित गठन देखकर ऐसा अनुमान होता हैं कि आप वीर पुरुष है | आपके कोमछ चरणोको ठखकर जान पड़ता है कि आप राजमहलके रहनेवाले हैं । कभी जंगल अथवा पहाड़मे नहीं रहना पड़ा है | आपकी वेश-भूपाकों देखकर यही कहा जा सकता है कि आप ऋखिकुमार हैं; परतु कोई बात निश्चित नहीं । आपके मुखमण्डलका तेज स्पष्ट बता रहा है कि आप साधारण पुरुष नहीं, अलोकिक हैं। क्‍या आप तीनो देवताओमेसे कोई है ? कहीं आप साक्षात्‌ नर-नारायण ही तो नहीं हैं ? मेरे मनमे बड़ी शड्औा हो रही हूं | आपमें बड़ा आकपंण माद्धम पड़ रहा हैं ! आपके सौन्दय और माघुयसे मेरा चित्त मुग्ध हुआ जा रहा भक्तराज हजुमान, दे, आप मेरे अत्यन्त ममतास्पद जान पड़ते हैं | मैं आपके साथ कमी रहा हूँ, मेरा हृदय बार-बार यह वात कह रहा है, आप कृपा बरके मेरा संदेह नष्ट करें ! भगवान्‌ राम मद्र-मद्र मुसकराते हुए हनुमानकी वात खुन रहे थे। उन्होंने छत्मणकी ओर देखकर कहा--“ये ब्राह्मण बड़े बुद्दिमान्‌ हैं | इनकी बातोंसे माछुम पड़ता दे कि इन्होंने साड्रोपाडू ब्रेदोका अव्ययन विया ४ | इनके बोलनेमें एक भी अशुद्धि नहीं हुई € | इनकी आकृतिपर ऐसा कोई लक्षण नहीं प्रकट हुआ है, जिससे इनका भात्र दुरित कहा जा सके | ये किसी राजाके मन्त्री द्ोनेके योग्य हैं। इनकी उच्चारणशैंडी और नीतिमत्ता दोनों दी गम्भीर तथा प्रभावोत्यादक हैं ।! रामके इशारेसे लक्ष्मणनें कहा--- आउगदब ! इमलोग अयोध्यानरेश महाराज दशरथके पुत्र हैं। उनकी आज्ना मानकर चौंदद् वर्षके लिये बनमें आये हैं । यहाँ किसी राजसने मनकननिनी सीताका अपहरण कर लिया है। हमओग उन्हींको इूँढ़ते हुए इघर घूम रहे हैं। अब तुम अपना परिचय दो |! छक्ष्मणवी बात समाप्त होते-न-होते हनुमानका झूप बदल गया । ने वानरके रछूपमें भगवानके चरणोपर गिर पढ़े । उस समय उनका हृदय कह रहा था कि में भगवानके सामने दूसरा जेप धारण करे आया, एक प्रकारसे उनसे कपट किया, इसीसे उन्दोंने मुझसे वातचीततक नहीं की । मैंने उन्हें नहीं पहचाना, इस- लिये उन्धोंने भी मुसे नहीं पहचाना । मैंने उनका पत्चिय पूछा भ० हू० २--- भ््तराज हनुमान १८ तो उन्होंने भी मुझसे परिचय पूछा, यह सब्र मेरी कूटनीतिका फल है | मैं अपराधी हूँ, यह सोचते-सोचते उनकी आँखेंसे आँसुओं- की धारा बहने लगी, बे भगवानके चरणोंमें छोटने छगे | भगवानने उन्‍हें वलात्‌ उठाकर हृदयसे लगाया । हनुमानने कहा---प्रभो | मैं पश् हैँ । साधारण जीत हूँ । में आपको भूछ जाऊँ, मैं आपके सामने अपराध करूँ, यह खामाविक है | फंतु आप मुझे कैसे भूल गये 4 मै तो आपकी आज्ञासे सुप्रीवके पास रहकर बहुत दिनोसे आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। सुप्रीव भी बढ़े दुखी हैं। मैंने उन्हें आपका परिचिय देकर ढाढस बँधा रक्खा है | उन्हें अब एकमात्र आपका ही भरोसा है, अब आप चलकर उन्हें खीकार कीजिये और उनकी विपत्ति ठाल्कर उनसे सेवा छीजिये ७ हलुमानने आनन्दमर्न होकर दोनों भाइयोंकों अपने दोनों कंघोंपर बैंठा व्िया और वे उन्हें सुग्रीवके पास ले चले | राम और सुप्रीवकी मित्रता हुई | उन्होंने अग्निको साक्षी बना- कर सल्य-सम्बन्ध स्थापित किया | वाछ्षि मारा गया और सुम्रीत्र वानरेंके राजा हुए । चौमासेमें भगवान राम जौर लक्ष्मण प्रवर्षण गिरिपर तिंवास करते रहे । सुग्रीव भोग-ब्रिछासमें पड़कर रामका काम भूछ गये । परंतु हनुमान कैसे भूलते १ उन्होंने कई बार सुग्रीकको समझानेकी चेश की, किंतु सुग्रीवने छुनी-अनसुनी कर दी । वे अपने काममें छय गये, जब लक्ष्मणने सुग्रीवको उपेक्षा करते देखा, तब वे बड़े क्रोषित हुए | अभी उन्हें तारा मना ही रही थी कि हलुमानकें बुछाये हुए बानर-भाद्ुओंकी अपार सेना ९ भक्तराज इनुमान्‌ भा पहुँची | यह उद्योग देखकर व््मण सुप्रीवपर प्रसन हो गये। झुप्रीय भगवान्‌ रामके पास क्षाये और उन्होंने अपने प्रमादके लिये दामा माँगी । भगवान्‌ रामके सामने देश-देशान्तरोका वर्णन करके घुप्नीव सीताको ढूंढ़नेके लिये वानरी सेना मेजने छगे | सीताके हम्बन्धमें इतना पता तो या ही कि रावण उन्हें दक्षिण दिशामें ले गया है, परंतु वानरोंको सब ओर भेजनेका अभिप्राय यह था कि और वानर इकद्ठे किये जायेँ तथा यदि रावणने सीताकों कहां भन्पत्र रख दिया हो तो उसका भी पता चल जाय । सुग्रीवने शासन- के बाच्दोंमें कद्धा--'जो एक महीनेमें निर्दिट स्थानोका पता ढ्गाकर नद्ठीं लोटगा, उसे में बड़ा कठोर दण्ड दूँगा ! सबने निर्दिष्ट दिशाओंकी यात्रा की | दक्षिण दिशामें दूँढ़नेका काम बड़ा ही मदृचत्पूर्ण था | इस- लिये यह काम मुए्य-मु्य बानर-वीरोंको ही सौंपा गया | जाम्बवात्‌, दनुमान, अड्रर, नड-नील आदिको घुलाकर उनके कामकी गुठता समझायी | उनके मनमें उस समय यह भाव उठ कि ये वीर अवश्य दी अपना काम पूरा करेंगे, विशेष करके हनुमान्‌- के डिये तो कोई काम अरम्भ दे ही नहीं । उन्होंने बड़ी प्रसनता भौर प्रेफसे कह्दा--'दनुमान्‌ ! जदमें, धलमें, नभमें--सरत्र तुम्हारी एक- पी गति ६। खगे अबबा अन्तस्क्षिमं भी ऐसा कोई नहीं, जो तुम्हारी गति रोक सक्रे | तुम अपने पिताके समान ही गति, बैग, तेज और स्ट्तिसे युक्त दो | तुम सब बुछ जानते द्वी हो, तुमसे और क्या कहूँ १ तुम्दारा काम केवछ स्थानोमें देख आना अक्तराज हनुमान ब्य दी नहीं है, बल्कि तुम्हारा काम सीताको पाना है । मेरा तुमपर पूर्ण विश्वास है कि तुम सीताका पता लगाकर ही लोटोगे ।” सुप्रीवकी वात सुनकर भगवान्‌ रामने हनुमानकों बुछआया । भगवान्‌ तो पहलेसे ही जानते थे, पर्रतु सुग्रीवकी वातेंसे उन्हें और भी स्थृति हो आयी। उन्होंने हनुमानसे कहा--हलमान, | तुम मेरा कार्य अवश्य पूर्ण करोंगे | यह मेरी अँगूठी ले जाओ, इसे देखकर सीता विश्वास कर लेंगी कि तुम रामके दूत हो | सीतासे कहनेके लिये उन्होंने संदेश भी दिये । हनुमान आदि उनके चरणोंका स्पर्श करके वहाँसे चल पढ़े । ्( ३ २५ २६ हनुमान्‌, जाम्बवानू, अन्भंद आदि ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये । भूख-प्यासके मारे व्याकुछ हो गये | पानीक्रा कहीं पता नहीं, कई दिनोंसे फलोंके दशन भी नहीं मिले | सारी जिम्मेवारी हनुमानपर आयी । उस भीजण पवतके एक अड्॒पर चढ़कर उन्होंने देखा तो यास ही कुछ हरियाली दीख पड़ी । कुछ सुन्दर-छुन्दर पक्षी अपने 'यंखेंसे पानी छिड़कते हुए आते दीख पड़े । अनुमान हुआ कि यहाँ कोई छुन्दर बगीचा और जलाशय होगा | सबको लेकर वे उधर ही गये । वहाँ जानेपर माछूम हुआ कि एक गुफामेंसे ही ये सब निकल रहे हैं। एक दूसरेका हाथ पकड़कर भगवान्‌ रामका स्मरण करते हुए वे गुफामें घुस पड़े । बड़ी ही छुन्दर गुफा थी, चहाँके झरनेंमें अम्ृतमय जल था, सोने-से वृक्ष ये और उनमें बढ़े ही स्वादिष्ट फल लगे हुए थे । वहाँकी तपखिनीसे अनुमति लेकर सबने खाया-पीया, स्वस्थ हुए । १ भक्तराज हनुमान उस तपशखिनीके पूछनेपर हलनुमानने सारा दृत्तान्त कह छुनाया और इच्छा प्रकट की कि जहाँतक हो सके शीघ्र ही हम- लोग यहाँसे निकल जायें तो अच्छा है । उस तपखिनीने कहा--- प्मैया | यहाँ आनेपर फिर कोई जीवित नहीं लौठता । यह निर्षि्न तपत्या करनेका स्थान है, यदि छोग यहाँसे छौटने लगें तो यहाँकी तपस्यामें विध्न पड़े । परंतु तुमने मुझे भगवान्‌ रामकी कथा घछुनायी है; इसठिये तुमलोगोंको तपत्याके बलसे मैं यहाँसे निकाल छे चल्ती हैँ । मुझे भी भगवान्‌ रामके दशनके उिये प्रब्षण गिर्पिर जाना है. । अच्छा, अब तुमलोग अपनी आर्खें बंद कर लो ! वानर-भाल्ुओंने अपने-अपने हाथोंसे अपनी-अपनी भोखें बंद कर लीं | क्षणभरमें ही उन्होंने देखा कि सब समुद्रके किनारे एक ऊँचे पवंतपर खड़े हैं । हनुमानसे अनुमति लेकर वह' हपलिनी भगवान्‌ रामके दशनके लिये चली गयी | है 0 प ५ रे अज्दने वद्धा--भाई! अब एक महीना बीत गया, ने हम- रोग जानकीका पता छगा सके और न तो जहाँ-जहाँ जाना चाहिये था, वद्ों-च्हाँ जा ही सके | अब वहाँ जानेपर सुप्रीव मुझे अदस्य मार डालेंगे | इसल्यि में अब यहाँ रहकर तपत्या करूँगा । तुमडेग जाओ ॥ हनुमानने कहा---बुवंज ! आप असमय ही क्‍यों. दिम्मत द्वार रहें हैं ! सुप्रीव आपसे बड़ा प्रेम करते हा आप भअपने जी-जानसे भगवान्‌ एमका कार्य पिद्ध होनेके £ चेश करते रहे हैं । गुफामें जानेके कारण हमलोगोंकी देर हो गयी है, वे अवश्य क्षमा कर देंगे और आपको राजा बनायेंगे ॥ भ््तराज़ हनुमान श्र आप घबराइये मत ! भगवान्‌ राम बड़े दयाद्ध हैं, वे सर्वथा आपकी रक्षा करेंगे । चलिये; हमलोग अपनी शक्तिभर उनकी आज्ञाका पाठन दो करें । यदि आप सुग्रीवसे द्वेष करते हैं, उनके राजा होनेसे आपको दुःख हुआ है और यहाँ रहकर आप वचना चाहते हैं तो यह् कदापि सम्भव नहीं है । आप रामके कामसे जी चुराकर चाहे जहाँ भी छिप, लक्ष्मणके वाणोंसे नहीं बच सकते | उनका काम न करनेफर जब बच ह्वी नहीं सकते तो उनके पास चलना है अच्छा है, जैसा वे करेंगे वैसा होगा ।! हनुमानकी चात्‌ सुनकर अछ्डदने जीवित रहनेका संकल्प तो छोड़ दिया; परंतु उन्होने सुग्रीवके पास जानेकी अपेक्षा वहीं अनशन करके आ्राण- त्याग करना अच्छा समझा । इनके साथ सभी अनशन करने छगे । राम-चर्चा होने छगी | उसी समय सम्पातिके दशन हुए । उससे सीताका पता माद्म हुआ, सब वानर-भाद्द समुद्रके तटपर इकट्ठे हुए, कौन पार जा सकता है, इस विषयपर विचार होने छगा | अज्अदके अत्यन्त ओजखी भाषण देनेपर सबने अपनी शक्ति प्रथक-पथकबतायी और समुद्रपार जानेमें असम्थता प्रकट की । अहृदने भी कहा--- के किसी प्रकार पार तो जा सकता हैँ, परंतु छौट सकूँगा या नहीं इसमें छुछ संदेह है |” जाम्बबानने उन्हें युववाज कहकर सम्मानित किया और उनके जानेका विरोध किया | उन्होंने खयय॑ भी अपनी इद्धताके कारण जानेमें छाचारी प्रकट वी | अबतक इसुमान्‌ जुप थे । वे एक कोनेमें वैठे-बैंठे सबकी बातें सुन रहे थे । जब्नद निराश हो गये थे | सीताका समाचार मिलनेपर डरे भक्तराज हसुमान बानरोंमें जो प्रसन्नता आ गयी थी, उसका अब कह्ढीं पता नहीं था। जाम्बवानूने अड्ञदकों सम्बोधन करके कहा--.श्ुवराज ! निराश होनेका कोई कारण नहीं है । समुद्रपार जानेके लिये केबल बलकी ही आवश्यकता नहीं है, विशाल बुद्दिकी भी आवश्यकता है | इस कायके छिये भगवान्‌ शंकरने खयं अवतार धारण किया है । शाक्षतोंका संहार अध्रश्यम्भावी है ७ उन्होंने हनुमानकी ओर देखकर कहा--हनुमान्‌ ! तुम चुपचाप कैसे बेठे हो ? तुम्हारा जन्म ही रामके कामके लिये हुआ है । वायुनन्दन ! तुम अपने पिताके समान क्षणभरमें ही समुद्रपार हो सकते हो । तुम्हारी बुद्धि अग्रतिम दे । तुम विनिक्र और ज्ञानके निधान हो | तुम अपने अंदर इतना बल लेकर चुपचा५ कैसे बेंठे हो ? जाम्बबानने , इनुमानके जन्म, देवताओंके वरदान और ऋषियोंके शापकी कथा कही तथा स्मरण कराया कि तुम जो चाहो कर सकते हो । हनुमान्‌ निरन्तर भगवानके त्मरणमें ही तन्‍्मय रहते थे। उन्हें अपने-आपकी अथवा अपने वलकी स्मृति ही नहीं रहती थी। जाम्बबानूकी बात सुनते ही उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि मुझमें अपार इझक्ति दै। मुझपर भगवानकी अनन्त कृपा है और भगवानकी साथ शक्ति मेरी शक्ति दे | उनका शरीर बढ़कर छुमेर पवतका- सता हो गया । उन्होंने गजना करते हुए कहा--इस समुद्रमें क्या सखा है, भगवानकी #पासे में ऐसे-ऐसे सैकड़ों समुद्र लॉघ सकता हैं | यदि छद्धामें मुझे सीता न मिली तो में खगसे लेकर अह्मणेक- तक छान डदूँगा, छड्षाकते साथ त्रिकूट पर्वतको उखाड़ छाऊँगा; गनणबो मार डाढँगा, ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो भगवानका भक्तराज हनुमान श्छ का करते समय मेरे मार्गमें रोड़ अटका सके ।! हजुमान- की गजना झुनकर सम्पूर्ण वानरी सेना हपनाद करने छगी | जाम्बबानूने कहा--हजुमान्‌ |! तुम सब कुछ कर सकते हो; परंतु इस समय यह सब करनेकी आवश्यकता नहीं | तुम केबल सीताकी देख आओ | भगवान्‌ रामके साथ हम सब छक्का चलेंगे, भगवानके बाणोंसे राक्षत्रोका उद्धार होगा, रामकी कीतिं होगी ओर हम सत्र आनन्दोत्सव मनायेंगे # जाम्बवानकी बात छुनते ही हनुमात्‌ उछलकर एक बड़े ऊँचे पर्त-श्वृद्ठॉपप चढ़ गये । उनके चरणोंके आधातसे बड़े-बड़े पवेत-श्वड् टूटकर गिरने छगे। उनकी पूंछकी चोटसे बढ़े-बढ़े बृक्ष आकाझमें उड़ने छगे, उनमेंसे टूटकर बहुत-से ऋूछ हसुमानपर इस प्रकार गिर रहे थे, मानो वे उनकी पूजा कर रहे हो | देवताओंने जय-जयकार किया, ऋगियोंने शान्तिपाठ किया, वायुने सहायता की, समुद्रपार जानेके. डिये हनुमान्‌ उछछ पढ़े । उन्होंने भगवानको स्मरण करके वानरों- को आखासन दिया कि मेरे मनमें बड़ा उत्साह है, बड़ा हर्प है, भगवात्‌की असीम कुंपाका अनुभव हो रहा है, मैं काम पूरा करके: शीघ्र ही आऊँगा, तुमछोग घबराना मत और फिर भगवान्‌के: नामकी जयब्वनि करके वे चछ पढ़े | उनके वेगसे प्रभावित होकर बहुत-से इक्ष उनके साथ उड़ने छंगे | दछ-के-दछ बादल उनके शरीरके कठोर स्पशेसे तितर-बिंतर होकर करखरूप उनके शरीरपर कुछ शीतल जलबिन्दु डालने छगे । श्रीमारुतिताय और किसी ओर न देखकर आकाशामार्गसे ही चले जा रहे थे | समुद्रने सोचा कि रामके पूथथजोंने ही मुझे यह रूप दान रश५ भक्तराज हचुमान किया है, परंतु मैंने उनका कोई उपकार नहीं किया । कहीं रामके मनमें यह बात न आ जाय कि सीताहरणमें समुद्रका भी हाथ रहा है, क्योंकि एक प्रकारसे रावण मेरे अंदर ही रहता है । मैं ही उसके किलेकी खाई हूँ, यदि मैं उनके दूतका खागत करूँ, उसके विश्रामके लिये कोई उपाय कर सकूँ तो सम्भव है मै इस लाब्उनसे बच जाऊँ ७ उसने मैनाकसे कहा---मैनाक ! राम- दृतका खागत करो 7 मैनाक बड़ा विशाल रूप धारण करके. समुद्रके ऊपर निकल आया । हलुमानने समझा कि यह कोई विष्न है | वे अपने पैरोंके प्रंहाससे उसे पातालगामी करने ही जा रहे थे कि मैनाक मनुष्यका रूप धारण करके अपने अव्नपर खड़ा हो गया और उसने निवेदन किया कि हनुमान ! तुम मेरे सहायक, वायुके पुत्र हो | जब॑ इन्द्र अपने बन्रद्वारा पर्वतोंकी पाँखें काठ रहे थे, तब तुम्हारे पिताकी सहायतासे ही मैं समुद्र आ घुसा और अपनेकों बचा सका । मै तुम्हें विश्राम देना चाहता हूँ, थोड़ी देर थकावट मिठाकर फिर जाना । भगवान्‌ रामका काम तो सारे जगत्‌का काम है न ! उनके दूतकी सहायता करना सारे जगत्‌की सहायता करना है, आशा है तुम मेरी प्राथना खीकार करोगे |! हनुमानने बड़े प्रेमसे अपने हार्थोद्दारा मेनाकका स्पश किया और कह्ा---“मैनाक ! तुम मुझपर बड़ा स्नेह रखते हो । तुम मेरे पिताके समान वन्दनीय हो । मुझे तुम्हारी आज्ञाका पालन करना चाहिये, परंतु मैं इस समय भगवान्‌ रामके कामसे जा रहा हूँ। मेरा हृदय उनके कामके छिये अशान्त है । यदि मै विश्राम करने- के लिये अपने शरीरको रोक दूँ तो सम्भव है. कि मेरा ,ददय भक्तराज़ धनुमान श्द शरीरको यहीं छोड़कर छक्षामें पहुँच जाय | इस समय मैं एक क्षण भी नहीं रुक संकता, मुझे क्षमा करो ७ हनुमान्‌ चलते-चलते इतना कहकर आगे बढ़े | देवताओने सोचा कि हनुमानमें वछ तो है, वि्याकी भी कई चार परीक्षा हो चुकी है; परंतु राक्षसोंके बीचमें जाकर सकुशल लौट आनेकी बुद्ठि इनमें है या नहीं, यह वात जान लेनी चाहिये | उन्होने दक्षपुत्री, कक््यपपपल्ली और नागमाता सुरसाको हनुमानकी परीक्षाके लिये भेजा | वह आकर हलनुमानके मार्गमें खड़ी हो गयी और कहने लगी कि आज मुझे प्रार्घवश भोजन मिल है, में गरेटमर खारँगी | हनुमानने पहले तो यही कहा कि 'रामका काम है, मुझे पहले कर लेने दो, तव खा जाना। मैं मृत्युसे नहीं डरता |! परंतु जब उसने भखीकार कर दिया, तब हनुमानने मुँह फैछानेको कहा । वह जितना ही मुँह फेंछाती, हनुमान्‌ उसके डुगुने हो जाते। जव उसने सौ योजनका मुँह वना लिया तब हनुमान्‌ छोटा-सा रूप बनाकर उसके मुँहमें घुसकर फिर बाहर निकल आये। हनुमानके बुद्धि-कौशलको देखकर सुरसा बहुत प्रसन्‍न हुई और उसने सफलताका आशीर्वाद देकर विंदा किया | राहुकी माता सिंहिका समुद्रमें ही रहती थी | ऊपर उड़ने- वार्लेकी छाया जलमें पड़ती तो वह छाया ही पकड़ लेती और उड़नेवाल्ा विवश होकर जलमें गिर पड़ता | इस प्रकार वह अनेकोंका संहार कर चुकी थी | हनुमानके साथ भी उसने वही चाछ चली । अपनी गतिको रुकती देखकर हनुमानने नीचे दि डाली और उस राक्षसीको पहचान लिया | भा वह हनुमानके घर भ्क्तराज हनुमान सामने क्या ठहरती, एक हल्की-सी चोटमें ही उसका काम तमाम हो गया और हनुमान्‌ निर्विब्न समुद्रके दूसरे तठपर पहुँच गये । ब़ा सुन्दर बन था । हरे-भरे चृक्ष, सुगन्धित पुष्प, पक्षियोंका ऋछरव और भैरोंकी गुज्नार वरवत मनको अपनी ओर खींच रही थी । परंतु हनुमानने डनकी ओर देखातक नहीं, वे कूदकर पहाड़के एक उँचे टीलेपर चढ़ गये | उन्होने निश्चय किया कि यह स्थान शित्रिर बनानेकरे योग्य है। चानरोंके छिये यहाँ फल-मल मी पर्याप्त हैं । मीठा जल भी है. और सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँसे पूरी छक्ला दीख रही है. । हनुमानने वहाँसे लक्काकी बहुत-सी वातें जान ढीं । उन्होंने बह्ढा-हुगंकी दुगमताका अनुमान करके निश्चय किया कि इसकी एक-एक बात जान लेती चाहिये। सीताको इूँढ़नेके साथ-साथ यह काम कर लेता भी मेरा क्तेव्य है। इतने बड़े विशाल शरीरसे लक्कामें जाना और वहाँकी प्रत्येक बातको गौरसे देखना असम्मब था; इसलिये महावीर हमुमानने मानो अणिमा सिद्धिका प्रयोग करके अषनेको छोठा-सा बना लिया और भगवानका स्मरण करते हुए वे लक्षके द्वारपर पहुँचे। छक्का- नगरकी अधिष्ठात्री देवी लक्डिनीने संष्या-समय हछिपकर इन्हें घुसते डुए देखा | उसे बड़ी शह्का हुई। उसने हनुमानके पास आकर डॉँट---'क्या तुम चोरी करना चाहते हो ? हनुमानने एक हल्का-सा बूँसा उसकी पीठपर जमाया और वह खून उगछती हुई जमीनपर धमसे गिर पड़ी | उसने अपनेको सम्हालकर कहा--जाओ, मैं तुम्दें पहचान गयी । त्रह्माने मुझे पहले ही बता दिया था कि जब वानरके मारनेसे तुम्हारी ऐसी दशा हो जाय, तब जान लेना भ्क्तराज इसुमान्‌ रे० “व्रिभीषण ! हमारे भगवान्‌ बढ़े ही दयाह्ध हैं । वे सबंदासे दीनजनोंपर कृपा करते आये हैं | तुम तो अपनी वात कहते हो । भल्य मैं ही कौन-सा कुलीन हूँ | वानर, चम्घछ और साधनहीन ! दूसरोंकी भछाई तो मुझसे दूर रही, यदि प्रातःकाछ कोई मेरा नाम ले छे तो उसे दिनमर भोजन न मिले। सखे विभीषण ! मैं इतना अघधम हूँ, फिर भी मुझपर मगवानने कृपा की है । जो ऐसे खामीको जानकर भी नहीं भजते, संसारमें मटकते रहते हैं, वे दुखी क्‍यों न होंगे # भगवानकी गरुणावढीका स्मरण करके: हनुमानका हृदय गद्गद हो गया, उनकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं | विभीषण और हनुमानमें वहुत-सी बातें हुईं | तिभीषणके बतलानेपर हनुमान्‌ अशोकवनर्मे गये | माँ सीता अशोकके नीचे बैठी हुई थीं। उनका शरीर सूख गया था, वालोंकी जठा बंध गयी थी, सिरपर सौभाग्यका चिह एक वेणीमात्र था । वे निरन्तर भगवानके नामका जप और मन-ही- मन भगवानकी छीला तथा गुणोंका स्मरण कर रही थीं | हनुमानने दूरसे ही उन्हें मानसिक प्रणाम किया और शीशमके एक दक्षपर चढ़कर बैठ गये । रावण आया और उसने सीताको फुसलानेकी चेश्ट की; फिर धमकाया; पर सीताकी इढ़ता, पत्रित्रता, रामनिष्ठा और सतीलसे प्रभावित होकर वह लौठ गया । बहुत-सी राक्षसियाँ सीताको रावणके अनुकूल करनेके लिये समझाने लगीं । इन बातोंसे सीताको बड़ी पीड़ा हुईं । रामका पता न चलनेके कारण उनके अनिष्टकी भी आरश्ढा हुई, ऐसा माछ्म हुआ कि अब वे जीवित न रहेंगी । त्रिजट अपने ख्नका दृत्तान्त कद्वकर उन्हें आश्वासन श्र | देने लगी और बहुत-सी राक्षप्तियाँ वहाँसे चली गयीं | थोड़ी देर बाद त्रिजटा भी चक्की गयी । सीताको अत्यन्त व्यवित देखकर हनुमानने राम-जन्मसे लेकर विवाह, वनगमन, सीताहरण आदिकी बातें इक्षपर्से ही कहीं और अन्तमें बतलाया कि भमैं उन्हींके भेजनेसे यहाँ आया हूँ !! हलुमान- की यह अमृतमयी वाणी सुनकर सीताकों बड़ा संतोष हुआ; परंतु दूसरे ही क्षण एक आइड्भासे उनका हृदय छिंहर भी उठा । उन्होंने सोचा, कहीं यह भी राक्षसी माया न हो | हचुमानने सीताका माष ताड़ लिया | उन्होंने कहा--“माता ! मैं करुणानिधानके चरणोंकी शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं भगवान्‌ रामका सेवक हूँ । उन्होंने आपके विश्वासके छिये मुझे एक अन्तर कथा बतायी है. | जब आप बनमें उनके साथ थीं और जयन्तने कौएका वेष घारण करके आपपर आक्रमण किया था तब भगवानने उसपर इबीकालका अयोग किया और उसे ब्रिल्लोकीमें कहीं भी शरण नहीं मिली । आपकी ऑगूठी जिसे केंबटकों देनेके डिये आपने उन्हें दी थी और भगवानने जिसे अपनी अँगुलीमें घारण कर रक्खा था, उसे मी मगवान्‌- ने आपके विश्वासके लिये मुझे दिया है. । आप मेरा विश्वास करें, मैं आपके चरण छूता हूँ । हनुमानका हृदय वास्तवमें निशछछ था और उन्होंने धच्चा प्रमाण भी दे दिया, इसलिये सीताको विश्वास हो गया। उन्होंने हँबुमानको नीचे बुलाया तथा ऑँगूठी लेकर वे आनन्दमान हो गयीं | उन्हें भगवानका संदेश पाकर इतना आनन्द हुआ मानो खयं प्राण- प्रिय भगवान्‌ ही मिछ गये हों । उन्होंने हलुमानसे कहा--हलुमान्‌ ! आप ५ घर, ब्रश, १७४ंंणणणाााआाा उन भ आज -तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है | यदि में यह समझकर कि भगवान्‌ मुझे भूल गये अथवा उनका कोई अनिष्ट हो गया, मर जाती तो यह वात सुनकर उन्हें कितना कष्ट होता | मेरे कारण वे दुखी होते । हलुमान्‌ ! कया वे कभी मेरा स्मरण करते हैं ! क्या मै उन्हें कभी देख पारऊँगी ? क्या वे शीघ्र ही मेरा उद्धार करेंगे # कहते-कददते सीताका गला भर आया, आँखोंमें ऑसू आ गये, वे बोढ न सकी । हलुमानने कहा--'माता | तुम इतना दुखी क्यों हो रही हो १ राम तुम्हारे लिये कितने दुखी हैं इसका चर्णन मै नहीं कर सकता । वे प्रथ्वीको देखकर कहते हैं कि माँ पृथ्वी | मेरे कारण तुम्हारी प्यारी पुत्रीकों बड़ा कष्ट हुआ है । वया इसीसे तुम मुझपर नाराज हो, जो मुझे समा जानेके लिये स्थान नहीं दे रही हो ! वे दिले हुए झ्ों और कल्योंको देखकर कह डत्ते हैं कि लक्ष्मण | इन्हें चुन लाओ, मैं सीताके वालमें गूँदूँगा । भाता | उनकी विरह-कथा अवर्णनीय है। वे अपनेको झल जाते हैं और सदा तुम्हारी ही याद किया करते हैं । हनुमानने पुनः कहा---माता ! उन्होंने आपको सम्बोधित करके कहा है---'प्रिये ! तुम्हारी उप्ितिमे जो वच्तुएँ मेरे लिये खुखकर थीं, वे ही आज दुःखकर हो रही हैं । सुन्दर-सुन्दर वृक्षों- की नयी-नयी कोपछ आज मुझे आग-सी जान पड़ती हैं | चन्द्रमा प्रीष्म-ऋतुके सूरयकी भाँति जलाता है और बादल्लोंकी नन्‍हीं-ननहीं बूँढें, जो पहले अमृतके समान जान पड़ती थीं, अब जब्ते हुए सेल-सी माछ्म पड़ती हैं | शीतल, मन्द, झुगन्घ वायु विषेले साँपो- की साँसोंके समान मुझे पीड़ा पहुँचाता है । यद्दि मैं अपना यह डरे भक्तराज़ दचुमान्‌ ठट्ठेग, यह आवेग किसीपर प्रकट कर पाता तो मेरा हृदय कुछ हल्का हो जाता । परंतु किससे कहूँ, कया कहूँ! कोई समझे भी तो ! हम दोनोंका जो पारस्परिक प्रेम है, एक दूसरेकी आत्माका संयोग है, मिलन है, उसका रहस्य केवल मेरा हृदय, मेरी आत्मा ही जानती है और मेरा हृदय, मेरी आत्मा सबंदा तुम्हारे पास ही रहती है, एक क्षणके डिये भी तुमसे ब्रिछुड़ती नहीं । तुमसे अछग होती नहीं |# क्या इतनेसे हमारे अनिबंचनीय प्रेमकी व्याल्या हो जाती है ! मै तो कहूँगा, कदापि नहीं; परंतु और कहा ही क्या जा सकता है ? यह कहते समय हनुमान्‌ भावाविष्ट हो गये थे। सीताको ऐसा माद्म हुआ मानो खय॑ राम उनके सामने खड़े होकर वोल रहे हैं । जे ग्रेममगन हो गयीं, शरीरकी सुधि प्र गयीं। हलुमानने उन्हें घेय वँधाते हुए कहा----'माता ! भगवानके प्रभाव, ऐश्वथ और वच्की ओर देखो । उनके वाणोंके सामने ये तुच्छ राक्षत एक क्षण भी नहीं ठहर सकते | समझ छो कि ये मर गये | मगवानकी अवतक आपका पता नहीं मिला था, नहीं तो वे न जाने कब राक्षसोंका संहार करके तुम्हें ले गये होते | हम सव वानर-भाछू उनके साथ आयेंगे और निशिचरोंको पछाड़-पछाइकर मारेंगे और आपको लेकर आनन्द मनाते हुए अयोध्या चलेंगे | माता ! आप क्या प्रमुका प्रभाव भूल गयी हैं ? वे माद्म दोते ही बहाँसे सैनिकोंके साथ चल पड़ेंगे, वाणोंसे समुद्रको # तत्व प्रेम कर मम अर तोरा | जानत प्रिया एक मनु मोरा ॥ सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। सप | भ्रू० हू० ३-०० भक्तराज़ हलुमान्‌ रैछे स्तम्मित कर दंगे, लट्ढामें एक भी राक्षस नहीं बचेंगा । यदि देवता दानव और ख़ब्ं मृत्यु भी मगवान्‌ रामके मार्गस विध्न डालना चाहेंगे नो वे उन्हें भी नष्ट कर दंगे। माता ! में हपथपूवेक कहती हूँ, तुम्हारे वियोगसे राम जितने व्यवित हैं, उसका वेशन नहा किया जा सकता | वे एक क्षणका भी विलम्ब नहीं करेंगे। आप उन्हे शीत्र ही सकुशल देखेंगी |! सीताने कहा---हलुमान्‌ अवतर्क दस महीने बीत गये, अब दो ही महीने वाकी हैं, यदि इनक बीचमें ही भगवानने मेरा उद्धार नहीं किया तो मैं उनके दर्शनसे बद्चित ही रह जाडऊँगी। में उनके दशतकी आशासे ही जीवित हूँ | रावणने अवतक मुझे मार डाछा होता, यदि विभीपणने अनुनय- विनय करके मेरी रक्षा न की होती ! सीता हनुमानसे ये बातें कहृते- कहते व्याकुल हो गयीं, उनका गछा सूख गया, वे बोल न सकी | हनुमानने कहा---'माता ! मैने कहा न कि भगवान में बात सुनते ही चछ पड़ेंगे | परंतु उनके आनेकी क्या आवश्यकता है | मैं आज ही आपको इस दुःखसे मुक्त करता हैँ | आप मेरी पीठपर चढ़ जाइये, में आपको पीठपर लेकर समुद्र छाँघ जाऊँगा । जैंसे अग्नि हत्नन किये हुए हृविष्यको तत्काल इन्द्रके पास पहुँचा हेता हैं; वैंसे ही मैं आपको तत्काल ग्रव्षण गित्पिर विराजमान “ भगवान्‌ रामके पास पहुँचाये देता हूँ | मगवानकी कृपासे ल केव्रछ आपको, वल्कि रावणके साथ सारी लछ््काको मे ढोकर छे जा सकता हूँ । अब देर मत कीजिये । जब मैं आपको लेकर चढँगा तव कोई भी राक्षत मेरा पीछा नहीं कर सकेगा / हसुमानकी वात चुनकर सीताको बड़ी प्रसन्नता हुई | उन्होंने कहा---हसुमान्‌ ! तुम्हार डेप भ्रकराज दलुमान्‌ शरीर बहुत छोटा है, तुम मुझे छे चलनेका साहस कैसे कर रहे हो ! इनुमानने सीताको अपना विराट रौदृरूप दिखछाया | वे बढ़कर छुमेह पर्व॑ंतके समान हो गये | उन्होंने सीतासे कह्या--“देवि ! भव देर मत करो | कहो तो राक्षस्रोंके साथ छक्काको ले चढूँ १ कहे तो राक्षस्रोंकी मारकर छक्काको ले चह्ूँ | निश्चय कर छो और चडकर राम-ल्क््मणको छुखी करो ।! जानकीने कहा---/हनुमान्‌ ! मैं तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा बल जान गयी | तुम वायु और अनिके समान प्रतापशाली हो । तुम मुझे छे चछ सकते हो; परंतु तुम्हारे साथ मेरा जाना ठीक नहीं है। मैं तुम्हारे तीत्र बेगसे मर्व्छित हो सकती हैँ। तुमपरसे गिर श्वकती हूँ । ााक्षतोंसे तुम्हे चड़ी लड़ाई करनी पड़ेगी और मेरे पीठपर रइनेसे तुम्हें बड़ी आपत्तियोंका सामना करना पड़ेगा । युद्धकी बात है, पता नहीं, तुम जीतोगे या वे जीतेंगे | तुम जीत भी सकते हो; परंतु इससे मगवानका यश नहीं बढ़ता । मेरे इस प्रकार जानेसे बहुत लोग सोचेंगे कि हनुमाव्‌ अपनी पीठपर किसको व्यि जा रहे हैं | एक ही क्षणके लिये सही, उन्हें हमारे चत्िपर शक्का हो सकती है | सीताने और भी बहुत-से कारण बतलाते हुए कहा---'पतिभक्तिकी इश्सि मैं स्वेच्छापूवंक तुम्हारे शरीरका स्पर्श नहीं कर सकती | रावणने मेरा शरीर छू लिया था, वह तो ,वित्रशताकी _वात थी, मैं असमर्थ थी, क्या करती १# जब राम यहाँ आकर . # भर्तमक्ति .. पुरस्कत्य .. रामादन्यत्य . वानर। नाई स्पब्दई खतो गानरमिच्छेयं वानरोत्तम ॥ यदह यात्ररुस्पर्श रावणस्व गता बलात। अनीशा कि करिब्यामि विनाथा विवशा सती॥ ( वा० रा० ५। ३७ | ६२-६३ ) भक्तराज़ धनुमान्‌ डे राक्षस्रोके साथ रावणको मारंगे तब मैं उनके साथ चहँगी और यददी उनके योग्य होगा ७ हनुमानने सीताकी बातोंका सम्मान किया । उसकी प्रशंसा की | सीताने कहा---'बेटा ! तुम्हारी भक्ति, मगवानपर विश्वास और तुम्हारा वल-पौरुष देखकर मुझे बड़ा संतोष हुआ दें | मै तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि तुम बड़े ही वल्बान, शीव्वान, अजर-अमर और गुणी होओ | भगवान्‌ सर्बदा तुमपर स्नेह रक्खें ।? भगवान्‌ सबेदा स्नेह रक्‍्खेंगे! यह सुनकर हनुमान्‌ पुरुकित हो गये । उन्हें और चाहिये ही क्या ः जीवनका परम लाभ तो यही है। उन्होंने माताके आशोर्नादकों अमोध कहकर झनकत्यता प्रकठ की । माताका दशन हो जानेके वाद हनुमानने सोचा कि अब तो श्रीरामका रावणसे युद्ध होना निश्चित है, परंतु इसका कि इतना मजबूत है, इसकी चहारदोब्रापाँ इतनी सुरक्षित हैं, इसके दरवाजों- पर ऐसे-ऐसे यन्त्र लगे हैं कि सहजमें इसे जीतना सम्भव नहीं है । इन्हें तोड़े बिना हमारे आक्रमणका मार्ग नहीं खुछ सकता | परंठु इन्हें तोड़ा कैसे जाय, यह एक प्रश्न है | अच्छा ! मैं तो वानर हूँ न। में फल तोड़कर खा सकता हूँ; क्योंकि अब भगवानूका काम हो चुका है । मैं इक्षेंके छुछ डाल-पात तोड़ सकता हूँ; क्योंकि | दुश्शेंकी उत्तेजित करनेका यही एक भाग है। हनुमानने निरूय कर लिया, उनकी बुद्धि और बल देखकर माताने भी अनुमति दे दी । बागके अनेकों इक्ष नष्ट हो गये । वागवान खदेड़ दिये गये । इजाएं राक्षत धूलमें मिछा दिये गये । एक दूँसेसे दी अक्षयकुमार- रे भक्तराज हनुमान की हड्डी-पसली चूर-चूर हो गयी । सारी लझ्ढामें तहलका मच गया | राबण पहले तो खय॑ं ही युद्ध करनेके लिये आ रहा था, परंतु मेघनादने उसे रोक दिया | वह आया, हनुमानके प्रहारोंसे उसके प्राणके छाले पड़ गये | उसने घबराकर ब्रह्मपाशका प्रयोग किया । यद्यपि त्रह्मके चरदानसे हनुमान न्रह्मपाशसे मुक्त थे तथापि उन्होंने सोचा कि ब्रह्मपशका अपमान नहीं करना चाहिये और शदणकी सभामें चलकर भगवानकी महिमा सुनानी चाहिये, जिससे राक्षत भयभीत हो जाये | वे खय॑ ही त्रह्मपाशमें वध गये । मेघनाद बड़ी प्रसन्‍नतासे उन्हे राजसमार्में ले गया। वहाँ जाते-जाते वह वन्धन उनके शरीरसे छूटकर गिर चुका था। हनुमानने देखा कि रावणकी समामें बड़े-बड़े देवता, छोकपाल, दिक्पाल हाथ जोड़े: ऱे हैं | सूर्यका प्रकाश मन्द है, वायु पंखा झल रहा है और अननिदेव भाह्ञाकी प्रतीक्षा कर रहे हैं| सब रावणके इशारेका इन्तजार कर रहे हैं । इनुमान्‌ निरशंक खड़े थे। रावणने उन्हें इस प्रकार अविनीत देखकर न, जाने क्या सोचा और वह ठद्दाका मारकर दँसने लगा; परंतु दूसरे ही क्षण उसे अपने पुत्र अक्षयकुमारकी याद आ गयी । उसने डॉटकर पूछा--व, कौन है, किसके वलपर तने ऐसा उत्पात मचा रक्‍्खा है? क्या ठ मुझे नहीं जानता ? मैं अभी तुझसे समझता हूँ ।” हनुमानने बड़े ही गम्भीर खर- से कद्दा---'राबण ! जो सम्पूर्ण प्रकृतिके आश्रय हैं, जिनके रोम-रोममें कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड प्रतिक्षण पैदा होते और नष्ट होते रहते हैं, जिनकी शक्तिसे अ्रह्मा, विष्णु, महेश---अपना-अपना काम करते हैं, जिनके कृपालेशसे शेषनाग प्रथ्वीको धारण करजलेमें समय होते हैं, भ्रक्तराज घनुमान्‌ डे जो तुग्हारे-जेसे राक्ष्सोको दण्ड देनेके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं, मैं उन भगवान्‌ रामका दूत हूँ । क्‍या तुम उन्हें नहीं जानते ! जनक- के घनुपयज्ञ्में जो धहुष तुमसे हिल्तक न सका था, उसे तिनकेकी माँति तोड़ देनेवालेको तुम भूल गये हो १ खर, द्रषण और त्रिशिराको चौदह हजार सेनाके साथ अकेले मारनेवालेको तुम नहीं जानते ! तुम्हें अपनी काँखमें दवा रखनेवाले बालिको जिन्होंने एक ही वाणमें मार डाल्य, उनको तुम नहीं जानते १ रावण ! तुम उन्हें भूल सकते हो, परंतु चे तुमको नहीं भूछ सकते । जिनकी अनुपस्थितिमें वेष बदलकर, धोखा देकर, जिनकी धर्मपत्नीको तुम चुरा छाये हो, उन्हें भूलकर भी तुम बच नहीं सकते। मैं उन्हींका दूत हूँ, मुझे अच्छी तरह पहचान लो । अब देर नहीं है, उनके बाणोंसे छज्ढा वीरान हो जायगी, इन तुम्हारे समासदों- का नामनिशानतक नहीं रहेगा |? हनुमानकी निर्मीक वाणी छुनकर राक्षस कॉपने छगे | उनके प्नमें वह भय बैठ गया, जिसके कारण वे युद्धमें भी वीरताके साथ रामका सामना नहीं कर सके-) देवताछोग मन-ही-मन प्रसन्‍न हो गये | रावणने हलुमानकी बातोंकी उपेक्षा कर दी । हनुमानने पुनः कहा---/भूख लगनेपर फल खाकर मैंने कोई अपराध नहीं किया है । पेड़-पत्ता तोड़ना तो मेरा खभाव ही है । जिन दुने मुझे मारा है, उनसे आत्मरक्षा करनेके लिये मैने भी प्रहार किया है । ज्यादती तो तुम्हारे पुत्रोंकी ही है, जिन्होंने मुझे बंदी बनामे- की चेष्टा की है; परंतु मैं उन्हें क्षमा करता हूँ । तुम मेरी एक वात छुनो, बस, एक बात मान लो | मैं विनयसे कहता हूँ, ड्डेर, भक्तराज हलुमान ओमसे कहता हूँ और सन्‍्चे हृदयसे तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ । भाई रावण ! जो काल सारी दुनियाकों निगछ जाता है, वह उनसे अयभीत रहता है, वह उनके अधीन रहता है। उनसे बैंर करके तुम 'चच नहीं सकते। तुम जानकीको ले चलो, परम कृपाद्ु भगवान्‌ तुम्हें ख्षमा कर दंगे; वे शरणागतके सब अपराध भूल जाते हैं | तुम उनके चरणोंका ध्यान करो और छट्ठाका निम्कण्टक राज्य भोगो । तुम बढ़े कुलीन हो, तुम्हारे पास अतुल सम्पत्ति है, तुम बढ़े ही बिद्वान्‌ हो और बल भी तुम्हारे पास पर्यात है, उन्हें पाकर अभिमान मत करो, ये चार फिनकी चाँदनी हैं । चलते, भगवानकी शरण होओ । मैं तुमसे सत्य ऋहता हूँ, शपथपूर्वक कहता हूँ कि रामसे विम्ुख होनेपर तुम्हारी कोई रक्षा नहीं कर सकता | इसडिये--- मोहमूरू चडु खूल प्रद्‌ त्यागडु तम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा खिंघु भगवान ॥ यद्यपि हनुमानने वहुत ही हितकर वाते कहीं; परंतु वे शवगको अच्छी नहीं छगीं। उसने खीज्ञकर राक्षसोकी आज्ञा टी कि इसे मार डालो । विभीषणने आपत्ति की कि दूतकों मारना अन्याय है। अन्तमें अज्ज-भ्ठ करना निश्चय रहा और रावणने यूँछ जा देनेकी आज्ञा दी । पूँछमें कपड़े छपेटे जाने छगे। उसे तेखमें मिगोया गया और आग लगा दी गयी | दस-बत्रीस राक्षस उन्हे पकड़कर नगरमें घुमाने लगे, बच्चे ताठी पीठ-पीटकर हँसने रूगे | हनुमानने लक्षाष्यंस करनेका यही अचसर उपयुक्त समझा । उन्होंने अपनी पूँछले एफ झटका लगाया और सारे राक्षत्र अपने- भ्क्तराज हनुमान ड० अपने प्राण बचाकर भाग गये । वे उछछकर एक महलसे दूसरे महल- पर जाकर सबको भस्म करने छगे। वायुने सहायता की । अलिने अपने मित्र वायुके पुत्रके कार्यमें हाथ बैठाया, छक्का धह-वह करके, जलने लगी। वहुत-से यन्त्र नष्ट कर दिये। धोखा देनेके स्थान भर्म कर दिये। परंतु सोनेकी छक्का अबतक जली नहीं | यद्यपि सारे नगामें हाहमकार मचा हुआ था, सव अपनी-अपनी सामग्री, वाल-बच्चे और ब्वी, वृद्धोंकी लेकर अलग भाग रहे थे तथापि लट्ढडा जलनेके समय भी चमक रही थी । कहते हैं कि छक्»ाकी एक काल-कोठरीमें शनेश्वर देवता कैद थे हनुमानका पैर उसकी चहारदीवारीपर लगा और वह टूट गयी। शनेश्वरने हलुमानसे पूछकर सारी बात जान ली और एक कनखीसे छट्टाकी ओर देखा | एक विभीषणका घर छोड़कर सारी छक्का जलकर राखकी ढेरी हो गयी । उन्होंने हनुमानको वरदान दिया और बतछाया कि अब छक्लाका सत्यानाश निकट है, वे चले गये । शनेश्वर देवताको मुक्त, करके हनुमानने जब देखा कि सारी लक्का ध्वस्त हो गयी, इसके बीहण मोचेमिं अब कोई खतरनाक वात न रही, तब वे समुद्रमें कूद पड़े और स्नान करके फिर माँ सीताके पास आये । माँ सीताने भगवानके छिये उन्हें चूडामगि दिया और शीतघ्र-से-शीघ्र अपने उद्धारकी प्रार्थना करनेके लिये कहा। उन्हें प्रणाम करके घोर गजेना करते हुए हनुमानने यात्रा की । े > »< श जाम्बवान्‌, अह्डृद आदि बिना कुछ खाये-पिये एक पैरसे खड़े: डरे भक्तराज हनुमान कर हनुमानकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी किल्कारी झुनते ही सबने कार्यस्िद्विका अनुमान कर डिया और आगे बढ़कर उन्हें गलेसे छगाया | खाते-पीते मघुचन उजाड़ते हुए सब भगवान्‌ एके पास पहुँचे। हनुमानने वढ़े ही करुण राच्दोंमें सीताकी दशाका वर्णन किया | छक्काके ऐश्वर्य, रावणकी शक्ति और वहाँकी एक-एक बात उन्होंने भगवानसे बत्तायी । भगवानने कहां--- (हनुमान ! तुम्हारे समान उपकारी संसारमें और कोई नहीं है। मैं तुम्हें क्या बदला दूँ, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, तुम्हारे सामने मुझसे देखा नहीं जाता ७ भगवानकी यह वात सुनते ही हनुमान्‌ व्याकुल होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े और प्रेममग्न हो गये | भगवान्‌ रामने वछात्‌ उन्हें उठाकर हृदयसे लगाया और उन्हें अपनी अनन्यः भक्तिका चरदान दिया | भगवान्‌ शंकरकी अभिलापा प्रर्ण हुई। जिसके डिये वे हनुमान्‌ बने थे, वह कार्य पूरा हुआ । --+>->ग्अयट 80%... (३) हनुमानके जीवनमें यह विशेषता है कि जो इनके सम्पर्कर्मे आया, उसे इन्होंने किसी-न-किसी प्रकार भगवानकी सबिधिमें पहुँचा ही दिया | छंकामें विभीषण इनसे मिले, इनके संसर्ग और आलापसे वें इतने प्रभावित हुए कि रावणकी भरी समामें उन्होंने हनुमानका पक्ष लिया और अन्‍न्तमें रावणको छोड़कर वे रामकी शरण आ गये |उस समय जब सुग्रीवके विरोध करनेपर भी भगवानने शरणागत-रक्षाके प्रणकी घोषणा की तब इन्हें कितना आनन्द हुआ, यह कहा नहीं जा सकता । अद्भदको साथ लेकर भक्तराज दनुमान, डर सबसे पहले हनुमान्‌ उमंगमरी छछाँग मारकर विभीषणके पास चले गये और उन्हें भगवानके पास ले आये | उनका एकमात्र काम है भगवान्‌की सेवा, भगवानकी शरणमें जानेवालोंकी सहायता । समुद्र-बन्धन हुआ, उसमें हनुमान्‌ कितने पहाड़ ले आये, उसकी गिनती नहीं की जा सकती । सेतु पूरा होते-होते भी ये उत्तकी सीमासे एक पहाड़ छिये आ रहे थे | इन्द्रपस्थसे कुछ दूर चलनेके बाद उन्हे माछम हुआ कि सेतु-बन्धनका कार्य प्रा हो गया । उन्होंने सोचा कि अब इस पहाइकों ले चलकर क्‍या होगा, वहीं रख दिया, परंतु वह पहाड़ भी साधारण पहाड़ नहीं था, उसकी आत्माने प्रकट होकर हनुमानसे कहा---भक्तराज ! मैंने कौन-सा अपराध किया है कि आपके कर-कमलोंका स्पर्श प्राप्त करके भी मैं भगवानकी सेवासे बश्चित हो रहा हूँ । मुझे यहाँ मत छोड़ो, वहाँ छे चछकर भगवानके चरणोंमें रख दो, प्रृथ्वीपर स्थान न हो तो समुद्रमें डुबवा दो, भगवानके काम आऊँ तो जीवित शहना अच्छा, नहीं तो इस जीवनसे क्या छाभ है ? हनुमानने कहा--“गिर्रिज | तुम वास्तवमें गिरिराज हो । सुम्हारी यह अचछ निष्ठा देखकर मेरे मनमें आता है. कि मै तुम्हे ले चढँ; परंतु भगवानकी ओरसे घोषणा की जा चुकी है कि अब कोई परत न छावे | मैं विवश हूँ । परंतु मैं तुम्हारे लिये भगवानसे प्रार्थना करूँगा, जैंसी वे आज्ञा देंगे, वैसा मैं तुमसे कह दूँगा । हनुमान्‌ भगवानके पास गये | उन्होंने उसकी सचाई और आयेना भगवानके सामने निवेदन की । भगवानने कहा---“वह 'पर्चतत तो मेरा परम प्रेमपात्र है | उसका तुमने उद्धार किया है । हर भक्तराज दसुमान, जाकर उससे कह दो कि द्वापरमें में कृष्णछपमें अवतार लेकर उसे अपने काममें छाकँगा और सात दिनोंतक अपनी अंगुलीपर रखकर अजजनोंकी रक्षा करूँगा | हनुमानने अजभूमिमें जाकर गोवर्घन- से भगवानका सन्देश कहा | हनुमानकी झपासे गोवर्धनर्णिरि भगवानूका पर्स कृपापान्न वन गया। भगवानकी नित्यछीलाका 'पर्किर हो गया ) अ >< ३4 ५ सुवेल परवेतपर भगवान्‌ पर्णशय्यापर लेटे हुए थे । छुप्रीवकी गोदमें उनका पछिर था, अद्भद-हचुमान्‌ चरण दाव रहे थे, धलुष और तूणीर अगलू-बगल रकक्‍्खे हुए थे, लक्ष्मण पीछेकी ओर वीरासन- से बैंठकर मगवानको देख रहे थे, भगवान्‌ अपने हाथमें बाण लेकर सहला रहे थे। भगवानने चन्द्रमाकी ओर देखकर पूछा-- भाई ] अपनी-अपनी बुद्धिके अबुसार तुमछोग बताओ कि यह चन्द्रमामें श्यामता कैसी है. ! सुप्रीव, विंभीषण, अन्भद आदिने अपने-अपने भावके अजुसार उसके कारण वतलाये | सत्रके पीछे इलुमानने कहा---'प्रभो ! चन्द्रमा आपका सेवक है । आपका मी उसपर अनन्त ग्रेम है । चह आपको अपने हृदयमें रखता है और आप उसके हृदयमें रहते हैं | बस, आप ही चन्द्रमाके हृदयमें श्यामहुन्दर- रूपसे दीख रहे हैं ।” भगवान्‌ हँसने छगे, सबको बड़ी प्रसनता हुई। कह हनुर्मत खुनहु प्रश्ु सखि तुम्हार म्रिय दाल। तब मूरति विधु उर बसति सोइ स्थामता अभास ॥ हनुमानको तो सर्वत्र ही मगवानके दर्शन होते थे | चन्छमा- ज॑ उन्होंने मगवानके दर्शन किये तो इसमें आश्रयकी क्या वात है १ भक्तराज हनुमान मे राम और गबणक्ता भयंकर युद्ध हुआ । हनुमानने उसमें कितने राक्षतरोंका वध किया. यह रामायण-प्रेमियोंसे ठिपा नहीं हैं । समय-समयपर युद्धमें उन्होंने राम, लक्ष्मण, विभीपण, जाम्बवानू-- सभीकी सहायता की । मेघनादसे युद्ध करते समय लक्ष्मणक्नों बड़ी ही भयंकर शक्ति छय गयी । वे रणमूमिमें ही मब्छित हो गये | मेघनाद और उसके समान अनेक सैनिकोंने मिलकर चेष्टा की कि लक्ष्मण- को उठा ले चलें. परंतु वे सफल न हुए, लक्ष्मणको जमीनपरसे उठा न सके । हलुमानने उन्हे अनायास ही उठा डिया और रामके पास ले आये । उन्हें म्रच्छित अवस्थामें देखकर राम शोकाकुछ हो गये । जाम्बबानने वतलाया कि लंकामें एक सुपेण नामके वैद्य रहते हैं | यदि वे इस समय आ जायेँ तो लक्ष्मण खस्थ हो सकते हैं । हनुमानूने लंकाकी यात्रा कर दी। उन्होंने सोचा कि श॒त्रु- पक्षक बैच है, शायद रात्रिमें न आवे । इसलिये उसका मकान ही उखाड़ ले चले, ऐसा ही किया । झुषेणने रामसेनामें आकर लक्ष्मणको देखा और वतलाया कि द्रोणाचलसे यदि आज रातमरमें ओषधियाँ आ जायें तो लक्ष्मण जीशित हो सकते हैं ! हनुमानने भगवानका स्मरण करते हुए द्ोणाचलकी यात्रा की । यह समाचार रावणको मिंठ॒ गया था । उसने कालनेमि नामक दैत्यसे मिलकर ऐसा पड़यन्त्र रत्ना कि हनुमानकों मागमें ही अधिक समय छग जाय और वे कल सूर्योदयके पहले यहाँ न लौट सकें । कालनेमिने ऋतषिका वेष बनाकर हनुमानको मुलावेमें "रखना चाहा; परंतु मायापतिके दूतपर किसकी माया चल सकती है ! दैवयोगसे हनुमानको पता चल गया और उन्होंने उस बनावटी ऋषिराजको मृत्युकी गुरुदक्षिणा देकर आमगेकी यात्रा की । ड्५ भक्तराज हनुमान हनुमान द्रोणाचछपर पहुँच गये । रातका समय था। वे ओषदियोंको नहीं पहचान सके । शायद ओपधियोंने अपनेको छिपा व्या । हनुमान बिलम्ब करना तो जानते ही नहीं थे, रातोंरात ही उन्हें लट्टा पहुँचना था । उन्होंने सम्नचा द्रोणाचछ ही उखाड़ विया और लेकर चढछते बने | छौंठते समय अयोध्या उनके मारगमें पड़ती थी । भरतने दूरसे ही देखकर अलुमान किया कि यह कोई राक्षस है । उन्होंने एक हल्का-सा बाण चला दिया | वाण छगते ही 'राम-राम” कहते हुए हनुमान्‌ म्र्च्छित होकर गिर पड़े । उनके मुँहसे दराम-रामः सुनकर मरत उनके पास दौड़ गये और बड़ी चेश् करके उन्हें जगाने छगे | अन्तमें उन्होंने कह्या--यदि मेरे हृदयमें रामकी सच्ची भक्ति हो तो यह वानर अभी जीवित हो जाय इनुमान्‌ उठकर बैठ गये । हनुमानने सारी कथा छुनायी | भरतने पछताकर अपनी बड़ी निन्दा की और हनुमानकों वाणपर वैठकर जानेके लिये कहा । हनुमानने वड़ी नम्नतासे अखीकार किया और वे द्रोणाचल लेकर लक्का पहुँच आये । उस समय श्रीराम वहुत ही व्याकुल हो रहे थे | हनुमानके आते ही उन्होंने उन्हें हृदयसे छगा जिया, सुषेणने उपचार किया और ल्क्ष्मण खस्थ हो गये । चारों ओर हलुमानकी कीर्ति गायी जाने छगी । छषेणको उनके घरसहित हनुमान्‌ यथास्थान रख आये | रातका समय था, हनुमान्‌ पहरा दे रहे थे । अहिराबण विवीषणका वेष घारण करके आया। हलुमानने उसे बुछाया और यूछा कि 'भाई ! इतनी रातकों कहाँसे आ रहे हो ? उसने कहा- «“भगवानकी आज्ञासे संष्या करने गया था, आनेंमें देर हो गयी, भक्तराज हनुमान ४६- उन्होंने मुझे शीत्र ही बुलाया है। 'सबके सो जानेपर अहिरावण राम और छक्ष्मणको अपने कंथोंपर उठाकर ले भगा। भगवानको भव्य कोई कया हर ले जा सकता है ? लक्ष्मण तो कभी सोते ही नहीं थे; परंतु जब ग्रमुको अपने भक्तकी महिमा प्रकट करनी होती है, तो वे साधारण मनुष्योंकी भाँति ही छीला करते हैं। आज हनुमानकी महिमा प्रकट करनी थी, वे चुपचाप अहिरावणके कंघे- पर चले गये | दूसरे दिन ग्रातःकाल सारी सेनामें बड़ा कोलाहछ मचा । छुग्रीव, जाम्बवान्‌, विभीषण सब-के-सब व्याकुल थे | हनुमानने वह घटना सुनायी | विभीयणने कहा--यह अहिरावणकी माया है, मेरा वेप और कोई नहीं वना सकता 0 हनुमानने कहय---/चह चाहे जितना बढी हो, चाहे जितने गुप्त स्थानमें रहता हो, मैं उसके पास जाऊँगा और उसका वध करके अपने अ्रभुको छे आझँगा | हनुमानने यात्रा की । देवयोगसे मार्गमं कुछ ऐसी घटना घटी कि अहिरावण उन्हें नागछोकरमें ले गया है, यह वात निश्चितरूपसे माछ्म हो गयी । वहाँ जाकर हलनुमानने महलूमें प्रवेश करनेकी चेआ की; परंतु मकरध्वजने रोक दिया | उसने कहा--..'तुम कौन हो जी | जानते नहीं, मैं महावीर हज्ुमानका पुत्र हूँ ! चोरीसे जाना चाहोगे तो मै तुम्हें छोद्देके चना चबवा दूँगा ! यह सुनकर हनुमान चकित हो गये | उन्होंने कह्ा--“भैया ! मेरा पुत्र तो कोई है नहीं, तुम कहाँसे ठपक पड़े |! मकरध्वजने कहा--“जब आप छक्का जला- कर समुद्रमें स्नान कर रहे थे तब एक मछली आपका पसीना पी गयी- थी | उसके गर्भसे मैं पैदा हुआ हूँ |” हनुमानने उससे राम-छक्ष्मणका । भ्रक्तराज़ हनुमान पता पूछा | उसने कहा--'मैं यह तो कुछ जानता नहीं, आज मेरे खानी कित्तीकी वलि दे रहे हैं | वहाँ किसीको जानेकी आज्ञा नहीं है। मे आपको भी नहीं जाने दूँगा ।! आ; एकसे बढ़कर एक, बड़े बापका बेटा बड़ा [ घजन्तम हनुमानने उसे उसकी ही पछसे बाँध दिया और घुस गये मद्िरमें | उनके चरणोंका स्पर्श होते ही देवी जमीनमें घेंस गयीं और वे मुँह बाकर देवीके स्थानपर खड़े हो गये । राक्षसोंने समझा कि देवी प्रसन्न होकर प्रकट हुई हैं, खूब पूजा की गयी, भाजकी देवीजी जो कुछ फुछ, माल, अन्न, बल आता उसे मुँहमें ही रखने लगीं | वलिदानके समयपर राम और छक्ष्मण छाये गये । उस समय राक्षस उनसे अनेकों प्रकारके विनोद करते, उन्हें भाँति- भाँसिसि तंग करते । वे चुपचाप सहते, चूँ तक भी नहीं करते | अहिरावणने कहा---“अब तुमछोग अपने रक्षकका स्मरण करो |? भगवानूने हँंसकर कहा---देखो, कहीं तुम्हारी देवी तुम्हें ही न खा जायें बह इनपर तल्यार चढलानेहीवाल्या था कि हनुमान गजना करके भगवानके पास पहुँच गये और इन्हें अपने दोनों कंघोपर वेंठाकर उन्होंने अहिरावणके हाथसे खडम छीन लिया | लअहिरावण और राक्षसोंका संहार करके हनुमान भगवानकों शिविर- पर ले आये । चारों ओर आनन्दकी घ्वनि और कोलाहल होने छगा । हनुमानके जय-जयकारसे दिंशाएँ गूँज उठीं। हलुमान्‌ निरन्तर रामके काममें ही छगे रहते | अब भी छगे ही रखते हैं, परंतु यह बात युद्धके समयकी है । दिनभर कमी अगवानके पास और कभी उनसे दूर रहकर युद्ध किया करते भ्तक्तराज द॒नुमान्‌ डेट और रातमें मगवानके चरण दवाते । उनसे घर्मकी, प्रेमकी, ज्ञानकी बातें सुनते | कमी-कमी क्या आयः ही भगवान्‌ उनके शरीरपर अपने कर-कमलछ फेर देते और उनकी सब्र थकावठ मिठ जाती । जब भगवान्‌ राम सो जाते तब वे अपने छंवे लंगूरकी चहरदीवारी वनाकर दरबाजेपर बैठ जाते और रातभर पहरा देते और पुनः प्रातःकाल होते-न-होते युद्ध । कोई कठिन काम आ पड़ता तो जाम्बवान, सुप्रीय, अज्भदर--समभी हनुमानकी शरण छेते । रावणसे युद्ध करते समय हनुमानने उसको एक ऐसा घूँसा जमाया कि वह पम्नच्छित हो गया । उसने होशरमें आकर हनुमानकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और खीकार किया कि जीवनभरमें ऐसे वीरसे कमी मेरा पाला नहीं पड़ा था | बात यह थी कि रावणके ग्रहारसे लक्मण म्रच्छित हो गये थे ! अपने पुत्र मेघतादकी भाँति रावणने भी चाहा था कि मैं इन्हें उठा ले च्ूँ । उसने सारी शक्ति छगा दी, पर लक्ष्मण न उठे, न उठे | यद्द देखकर हनुमान दौड़े, राबणके जाणोंसे सारा शरीर छिंद जानेपर भी वे लक्ष्मणके पास पहुँच गये और रावणको एक घूँसा जमाया । वे लक्ष्मणको फूलके समान उठाकर रामके पास ले आये | रामने हसुमानका आलिड्िन करते हुए कहा--“मैया ! तुम तो कालके भी महाकाल हो । देवताओंकी रक्षाके डिये अवतीर्ण हुए हो, फिर मूर्च्छा कैसी ? रामकी बात छुनते ही लक्ष्मण उठ बैठे और फिर दूने उत्साहसे रणमूमिमें गये । हनुमानके सत्साहससे इतना बड़ा संकट क्षणभरमें टछ गया | हब 04 4 हर राम विजयी हुए। अब सीताके पास विजयका संदेश लेकर डर, भक्तराज़ हनुमान कौन जाय | भगवानने इनुमानको बुछाकर कह्ा---हसुमान्‌ ! सीता तुमसे बड़ा स्नेह रखती हैं | भव यह विजय-समाचार घुनानेके डिये तु्हीं उनके पास जाओ । महाराज विभीषणसे आज्ञा लेकर ढड्ढामें प्रवेश करना और मेरी, सुप्रीव और लक्ष्मणकी कुशल कहना तथा रावणके बधकी वात भी कहना । सीता जैसे प्रसन्न हों, दैसी ह्वी वात उनसे कहना !” हनुमानने छट्ढटामें प्रवेश किया। छड्भावासी राक्षत्रोंने उनका बड़ा सम्मान किया । विभीषणकी आज्ञा ते प्राप्त थी ही । वे भशोकवनमें शीशमके नीचे बैठी हुईं सीताजीके पास पहुँच गये । चरणोमें साष्टाज्न दण्डबत्‌ करके उन्होंने सारा इत्तान्‍्त निवेदन किया | सीता एक क्षणतक बुछ नहीं बोल सकी, उनका कण्ठ हर्षगद्दद हो गया । उनकी आँखोंमें आँसू भर आये । सीताने कहा--वेठा | मैं यह इृ्ष-समाचार छुनकर कुछ बोल न सकी, इसे अन्यथा मत समझना । इससे बढ़कर मेरे लिये छुखद संवाद और कोई हो ही नहीं सकता । मैं सोच रही हूँ कि इसके बदले तुम्हें क्या दूँ १ क्योंकि आनन्दकी बात छुनानेवालोंको कुछ-नः बुछ देनेकी प्रथा हैं। परंतु यदि मैं तुम्हें त्रिछोकीकी सम्पूर्ण सम्पत्ति, समस्त ऐश्वर्य दे ढूँ, तो भी मुझे संतोप नहीं होगा । तुम्हारे हृदयमें सबेदा भगवानवी अनन्य भक्ति बनी रहे और मैं तुम्हारी रिनियाँ ही रहूँ | सब सद्दुणोंका तुम्हारे मनमें निवास हो जौर रघुनाथजीदी तुमपर संदा कंपा बनी रहे ॥? हलुमानने अज्ललि बाॉघकर कहा--'माता [ तुम्हारे अतिर्ति और कौन है, जो ऐसी स्नेहपूण बात कहे ? मेरे हृदयमें थुगल सरकार- की स्मृति बनी रद्दे, मैं उनके करकमर्छोकी- छत्न-छायामें रहूँ, इससे भ्र० छू० डे: भक्तराज़ दनुमान ५७ बढ़कर और है ही क्या जो आप मुझे देंगी | आप आज्ञा करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? सीताने कद्धा--'ैं मगवानके दरनके लिये बहुत ही उत्सुक हैं।अब एक क्षणका भी विलम्ब नहीं सहाय जाता ? हनुमानने तुरंत वहाँसे यात्रा की और भगवानके पास पहुँच आये | उन्होंने सीताकी प्रसन्ञता, उनकी दशनोत्कण्ग और प्रार्थना मगवानको सुनायी । भगवानने विभीषणकों आज्ञा दी कि 'सीताको छे आओ ८ ५३ र र् भगवान्‌ राम सीता, लक्ष्मण, सुप्रीय, विभीषण आदिके साथ पुष्पकत्रिमानपर चढ़कर अयोष्याके लिये छोटे । प्रयागमें उन्होंने हनुमानकों बुछकर कहा---हनुमान्‌ ! तुम अयोध्यामें जाकर देखो कि भरत कया कर रहे हैं । मेरे वियोगमें उन्हें एक-एक क्षण भी कल्पके समान जान पडता होगा । उन्हें मेरा समाचार छुनाना और उनका समाचार लेकर शीघ्र ही मेरे पात्र आ जाना |! हनुमानने प्रस्थान किया । अयोध्यामें मगवानके लिये भरत कितने व्याकुछ हो रहे ये, इसका अलुमान कोई भी नहीं कर सकता । हनुमानने उनकी दर्शा देखी, वे जटाका मुकुट बाँचे कुशके आसनपर बेंठे हुए थे, उनका शरीर सूखकर काँठा हो गया था, आँखेंसे आँसू बह रद्दे थे और मुंहसे निरन्तर रामनामका उच्चारण हो रहा था | वे इतने तन्मय थे कि उन्हें पता भी नहीं चला कि यहाँ कोई आया हुआ है । हनुमानने खय॑ ही उनका ध्यान भज्ञ करते हुए कह्ा--“जिनके बिरहमें आंप दुखी द्वो रहे हैं, जिनके नाम और ग्रुगोंकी रठना कर दे हैं, ण्र्‌ भक्तराज़ हलुमान्‌ वें ही सर्नवानू राम, वे ही देवता और“मुँनिय्रोंके रक्षक, माँ जानकी तथा खनेगके सोध-सहुद्ाल-आ रहे हैं ! हनुमानके वचन छुनते ही भरतके शर्ते नतीने- प्रह्मोक्त संचार गद्य । उचका रोम- रोम, उनका रग-र॒ग अदृतसे सरावोर हो गया, उन्होंने झट उठकर हनुमानको अपने गलेसे छगा छिया, पत्विय जाननेपर तो उनके आनन्दकी सीमा न रही । उन्होंने बार-बार भगवान्‌ रामकी वातें प्रष्ठी और हनुमावने भी कई वार कहीं | दोनोंको अनन्त आनन्दका अनुभव हो रहा था । मरतने कहा--भाई ! तुम्हें मै क्या दूँ, इसके वदलेमें देनेयोग्य और कौन-सी वस्तु है ! तुम्हारा ऋणी रहनेमें ही मुझे प्रसल्ता है |! हनुमान्‌ उनके चरणोंपर गिर पड़े और उनके प्रेमकी ' मष्भिरि प्रशंसा करके वतछाया कि “भगवान्‌ राम प्रायः ही आपकी चर्चा किया करते हैं । आपके सहुर्णोका बखान क्रिया करते हैं । आपके नाम जपा करते हैं ॥ मरतसे अनुमति लेऊर हनुमान वहाँसे विदा हुए । २५ ३ २९ र् भगवानका राज्यामिषेक हुआ । सभीक्रो उपहार दिये गये । खयं भगवान्‌ रामने अपने हाथों सुप्रीय, विभीषण आदिको बहुतन्से बहुमूल्य मगि, रत्न, वल्र, आमूपण आदि दिये । परंतु उन्होंने न जाने क्या सोचकर हनुमानको कुछ नहीं दिया । सभी समभासदू सोच रहे थे कि भगवानने हनुमानको क्यों भुछा दिया । भगवान्‌ सब समझ-बूझकर मी चुप थे । माता सीता भगवान्‌की लीलाका रहस्य समझ रही थीं, परंतु औरोंपर हनुमानका महत्त्व प्रकट वरने- भ्रक्तराज हनुमान ५२ के लिये उन्होंने एक दूसरी ही लीछा रची । अपने कण्ठ्से बहुपूल्य मणियोंका हार निकालकर उन्होंने हलुमानको पहना दिया । सं छोग माताकी प्रशंसा करने छंगे | हलुमानने भी बड़े प्रेमसे उसे खीकार किया | परंतु यह क्या, दूसरे ही क्षण सब छोग चकित होकर हनुमानकी ओर देखने छगे । वात यह थी कि हलुमात्‌ मणिका एक दाना उठाते और उसे तोड़ डाछते । बड़े गौरसे देखते और उसे फेंक देते | यह काम छगातार चछ रहा था | न जाने कितने दाने तोड़े और फेंक दिये। भगवान्‌ राम मुसकरा रहे थे । सीता कुछ गम्भीर-सी हो गयी थीं। भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण चकित-से देख रहे थे | परंतु सभासदसे नहीं रहा गया । उन्होंने कहा--हलुमान्‌ | तुम यह क्‍या कर रे हो ! इन बहुमूल्य मणियोंकों इस प्रकार म्ट्रीमें न मिछाओ ! किसीने दवी जवानसे कहा--“आखिर हैं तो वानर ही न ) इन्हें मणियोंके म्लल्यका क्‍या पता ? बहुतोंको नाराज होते देखकर इनुमानने कहा--भाई ! आपलोग क्यों नाराज हो रहे हैं १ मैं तो इन मणियोंका महत्त्व परख रहा हूँ | इनमें बडी चमक है। ये बहुत दामपर विक सकती हैं, सम्भव है इन्हे दामसे कोई खरीद भी न सके, इन्हें. पहननेसे सौन्दर्य भी बढ़ सकता है; परंतु क्‍या ये सव बातें ही महत्त्वक्री घोतक हैं ? नहीं-नहीं । मैंने महत्त्वकी कसौटी जो कुछ समझी है वह यह है कि जिस वस्तुके हृदयमें मगवानके दरन होते हैं, वही वस्तु महत्तपूर्ण है । मैं ढूँढ़ रहा था कि इन मगियोंके हृदयमें भगवान्‌ दीखते हैं या नहीं १ मुझे- नहीं दीखे । इनदी यह चमक-दमक मुझे अन्धकारमयी माद्ठम हुई । इनसे परे भक्तराज़ हनुमान मेरा क्या प्रयोजन ? ये मेरे क्रिप्त कामकी १ इन्हें एक-न-एक दिन टृटना ही है, छूटना ही है, मैंने इन्हें तोड़ दिया, छोड़ दिया !? हनुमानूकी वात सुनकर वहुर्तोको तो मणगियोंकोी तोड़नेका रहत्य समझमें आ गया; परंतु कुछ ऐसे भी थे, जिनके मनमें शक्ल बनी हुई थी । उन्होंने पूछ---तो क्या तुग्दारे हृदयमें राम हैं ! यदि हैं तो दिखाओ | और नहीं हैं तो तुमने हृदयका भार क्यों ढो रक्खा है / हनुमानने कहा--“निश्चय ही मेरे हृदयमें भगवान्‌ हैं; वैसे दी हैं, जेंसे तुम सामने देख रहे हो ॥ उन्होंने दोनों ह्यथ छातीपर लगाये, हृदय चीरकर दिखा दिया कि भगवान्‌ राम माता जानकी और भाहयेकि साथ उनके हृदयसिंहासनपर विराजमान हैं | सत छोग हनुमानकी महिमा गाने छगे | भगवानने सिंहासनसे उठकर हनुमानका आडिजुन किया और उनके शरीरका स्पश होते ही हनुमानका वक्षःस्थल पहलेसे भी अधिक इृढ़ हो गया। मगवानने हनुमानकों उपक्वार क्यों नहीं दिया, इसका रहस्य अब सबकी समझमें आ गया । माता सीता मन्द-मन्द मुसकराने लगीं | ८ 4 व ५ हनुमान-जेसा पुत्र और सीता-जेंसी माता | फिर दोनोंके सस्‍्नेहका क्‍या कद्दना ! हजारों दास-दाप्तियाँ थीं सीताकी सेवा करनेके छिये, उनके इशारेसे ही जो चाहतीं हो जाता; परंतु इतनेसे ही उन्हें ठृत्ति नहीं होती। उन्होंने अपने छाइले लुछ हनुमानको अपने हाथों रसोई बनाकर खिडानेकी सोचीं । अनेकों प्रकारके व्यझ्षन बनाये | हनुमान्‌ भोजन करने बैठे । माताके द्ायकी रसोई कितनी मीठी होती है, हचुमान्‌ खाने छगे | उन्हें भ्क्तराज हनुमान ०७ पता ही नहीं था कि मैं कितना खा गया | सारी रसोई खतम होनेयर भायी, परंतु अभी हनुमान्‌ भोजनसे बिरत नहीं हुए । माता सीता हनुमानके इस कइत्यसे चकित हो गयीं। उन्होंने निरुपाय होकर भगवान्‌ रामका स्मरण किया । सीताने देखा कि हनुमानके वेपमें खय्य॑ शंकर ही भोजन कर रहे हैं | प्रछ॒यके समय सारे संसारको निगल जानेवाले महाकालके भी काल हनुमानूका पेट कुछ व्यझझनोंसे कीसे भर सकता है ? उन्होंने एक प्रकारसे हनुमानकी स्तुति की, किंतु की मर्यादापूर्वक । उन्होंने हनुमानके पिछले भागमें जाकर उनके पिरपर छिख दिया---५४» नमः शिवायः और तब फिर भोजनकी सामग्री दी । अवकी वार हनुमान्‌ तृप्त हो गये | इस प्रकार खयं मा सीताने हनुमानकी शिवरूपसे खीकार किया | 4 >८ भ भगवान्‌ रामक्ी सभी सेवाएँ हनुमान ही करते । वे अपने . काममें इतने साववान रहते कि दूसरोंको अव्तर ही नहीं मिलता | भरत, शत्रु और लक्ष्मण भी भगवानकी सेवाके लिये छलकते दी रह जाते | अन्तमें उन लोगोने एक उपाय सोचा | वह यह कि एक ऐसी दिनचर्या बनायी जाय, जिसमें भगवानकी सदर सेवाओंका विभाजन हो और हमलोग अपना-अपना समय तथा काम निश्चित कर लें | हनुमानके छिये उसमें कोई स्थान न रक्‍्खा जाय | योजना वनी और सर्व्सम्मतिसे पास हो गयी | माता सीताके द्वारा वह भगवान्‌ रामके सामने उपस्थित की गयी, उसे देखकर भगवान्‌ मुसकराये । उन्होने हनुमानको दिखाकर पूछा--- ष्ष भक्तराज़ इनुमान्‌ 'कह्दो इचुमान्‌ | तुम इस योजनाकों पसंद करते हो ? हलुमानने कहा--भगवन्‌ | सबकी सम्मति और माताजीकी सिफारिश है तो आप इसे खीकार कर छें, जो सेवाकार्य इसमें न हो वह मेरा रह ९? भगवान्‌ने और ल्येगोंसे कह्ा--भाई ! खूब सोच-समझकर देख लो # सबने देखा, कोई काम छूठा नहीं था । सबने हनुमानजीकी बात मान छी । वह योजना सरकारसे मंजूर दो गयी | हनुमानने वताया---'भगवन्‌ |! दरवारकी यह प्रथा दै क्लि जब महाराज जँभाई लेने लगें, तत चुटकी बजायी जाय | सो यह काम मेरा रहा ७ सबने इसे साधारण काम समझा और भगवानने भी इंसकर उन्हें खीकृति दे दी । हल॒मानको सेवाके सम्बन्ध कितना सूक्ष्म ज्ञान है, भरत यह देखकर अवाक्‌ हो गये | है अब हनुमानकी बन आयी । भगवानके चलते-फिरते, खाते- सोते सबंदा उनके साथ रहने छगे | जब मगवान्‌ कहीं चलते, तब इनुमान्‌ आगे-आगे पीछेकी ओर मुँह करके चछते | जब भगवान्‌ छोते तव ये थोड़ी दूरपर खड़े रहकर भगवानका- मुखचन्द्र निद्वारते रुते । किसी-किसीने आपत्ति भी की थी, परंतु हलुमानने उसे यह कट्टकर निरुत्तर कर दिया कि अमुको न जाने कब जेमाई आ जाय | माता सीताकों भी भगवानकी सेवार्मे असुविधा होने छगी | छक्ष्मण और- शत्रुन्न तो घवरा-से गये | भगवान्‌ राम खूब हँसते थे । अन्ततः महारानी सीताके कहनेपर मगवानने नयी योजना बदल दी ॥००. कई». 2:०७ और फिर हलुमान्‌ पहलेकी भाँति निरन्‍तर सेवा करने छगे | _ हि हु ३ ह--> न्द्कः २९ | हि २५ भकराज दनुभान्‌ ५६ भरत, शत्रुघ्न आदि समीकी ऐसी धारणा थी और यद्द वात सच भी थी कि भगवान्‌ राम सत्रसे अधिक हनुमानपर ही स्नेद करते हैं | जब उन्हें कोई वात भगवानसे प्रछनी होती तब वे हनुमानके द्वार ही पुछवाते | हनुमात्‌ खयं मी मगवातसे और माता सीतासे अनेकों प्रकारके प्रइन प्रछते और जीव, शिव आदिके सम्बन्ध तत्त- ज्ञान प्राप्त करते | भगवान्‌ रामने कई बार उन्हें तत्त्वज्ञानका उपदेश क्या था और वेदान्तका सम्प्र्ण रहस्य समझाया था । अध्यात्मतामायण- के प्राथमिक प्रसक्ष ऐसे ही हैं | ब्रह्माण्डपुराणमें भी यह कया आयी दै कि भगवानने श्रीकृष्णावतारमें जो उपदेश अज्जुन और उद्धवको किये हैं, वे ही उपदेश श्रीरामावतारमें आज्नेय श्रीहनुमानजीको किये हैं। हनुमान्‌ ज्ञानकी प्लति थे | इस वातका प्रमाण कई प्रसंगोंसे मिलता है। शिव ही जो ठहरे | उनके छिये यह आश्चर्यकी कौन-सी वात है | कमी-कमी हनुमानको बहुत सेवा करते देखकर भगवान्‌ कहते कि 'हनुमान्‌ ! तुम तो मेरे खरूप ही हो, तुम्हें इतनी सेवा करनेकी क्या आवश्यकता दै! तुम तो केवल मस्त रहा करो ७ हनुमान्‌ कहते--प्रभो | आपका कहना सत्य है, किंतु सेवा करनेसे क्या मैं आपका खरूप नहीं रहता ! क्या सेवाके समय में मस्त नहीं रहता १ शरीरचश्सि मैं आपका सेवक हुँ शरीर सबंदा आपकी और आपके भक्तोंकी सेचामे छगा रहे, इसका यही उपयोग है | जीवद्ष्टिसि में आपका अंश हूँ । मैं आपकी सननिधिमें रहूँ, आपसे बिग न होऊँ; यह सबेया वाब्छनीय है | तत्लदश्सि तो में आपका खरूप ही हूँ । उस इश्टिसे पु भऊ्राज दइजमान्‌ क्या कहना, क्या झुनना दै !# मगवान्‌ हनुमानकी ऐसी बात छुनकर बहुत ही प्रसन्न होते । रे ० २ ३५ भगवान्‌ रामके अश्वमेष-यज्ञका घोड़ा छोड़ा गया। शबज्ुष्न, पुष्कठ, लक्ष्मीनिय आदि बड़े-बड़े वीर उसकी रक्षाके ब्यि नियुक्त हुए, हनुमान भी उनके साथ थे । अनेकों स्थानोपर बढ़े- बढ़े युद्ध हुए, हनुमानने उनमें कितनी तत्परता दिखायी, कितनी वीरतासे युद्ध किया, यह बात तो पद्मपुराणके पाताल्खण्डका वह अंश पढ़नेपर ही जानी जा सकती है । यहाँ केवल कुछ घटनाओंका दिग्दशनमात्र कराया जाता है। चक्रांका नगरीके राजा छुवाहसे युद्ध हो रहा था | वहुत-स्रे वीर मारे गये, अनेक्ों धायछ हुए, अन्तिम युद्ध सुबाह और हनुमाव्‌- का हो रहा था | हनुमानकी एक छात सुवाहुकी छातीपर बगी ओऔर वे वेहोश हो गये। मूर्च्छामें छुवाइने देखा कि मैं अयोष्यामें हूँ । भगवान्‌ राम सस्यूके किनारे यज्ञ कर रहे हैं और कोडि-कोटि ब्रह्माण्डोके अधिपति ब्रह्मा आदि उनकी स्तुति कर दे हैं । नारदादि ऋषिंगण बीगा, पखावज आदि बजाकर उनके युर्णोका कीर्तन कर रहे हैं और वे म्र्तिमानू होकर उनके यशका गायन कर दहे हैं । उनकी वह स्थामठुन्दर कछत्रि देखकर वाह मुस्ष हो गये, उसी अवस्थामें बहुत देरतक पढ़े रहे । जब उनकी मूर्च्छा टूटी, तब उनका अज्ञान नष्ट हो चुका या | “ ऋदेद्या ठ दासोज द्ीवद्या लद्ंशप 7 | आत्मदष्ठया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥ भष्राज दनुमान्‌ ५८ उन्होंने एक ऋषिकि शापकी कया छुनाकर इनुमानकी बड़ी महिम्ध गायी और बतछाया कि इन्हींके चरण-त्यशासे मुझे रामतत्तका ज्ञान इआ है, अब युद्ध बंद कर दो और सब छोग भेंटकी सामग्री लेकर अयोध्या च्ें | भगवान्‌ रामके यज्ञ्में सेवाका्य करें । इनुमान्‌ भादिकी पूजा करके वे छोग अयोध्या आये और हनुमान बद्दीय अश्रके साथ आगे प्रस्थान कि | जब वह घोड़ा देवपुर्के जझिवभक्त राजा वीए्मणिके द्वाग बाँध डिया गया, तव बड़ा भयंकर युद्ध हुआ | वीर्मगिकी भक्तिसे प्रसन होकर खर्य भगवान्‌ शंकरने युद्ध किया और झत्रुलत, पुष्क5 आदि सभी वीर मूर्च्छित एवं म्रृतप्राय हो गये | केवछ इनुमान्‌ ही लड़ते रद्दे | भगवान्‌ शंकरकी ही ढीला थी, वे ही अपने मक्त और भगवान्‌ दोनोंकी ओरसे छड रहे थे | दोनों ही ओर शंकर, तव भव्य कौन हारता । हनुमानने डॉटते हुए कहा--- मे तो जानता था कि हांकर रामके भक्त हैं; परंतु तुम्हारी मक्तिका पता छग गया । हमछोग रामका यज्ञ पूर्ण होनेके लिये घोढ़ेकी रक्षा करते हैं और तुम उसमें विब्न डालनेके डिये युद्ध कर रहे हो ।! शंकरने कहा--भाई | बात तो ठीक है | मुझसे मंगवानूकी भक्ति कहाँ बनती हे ? परंतु तुम्हारी बातें बड़ी अच्छी छग रहीं €। तुमन मुझ भगवानका छ्रण तो करा दिया; परंतु में क्या करू । वीरूणिकी, भक्तिसे वित्रश् हूँ | मुझे उसकी छोरसे रुडना द्वी पड़ेगा 0 बड़ा धमाप्तान युद्ध इआ। हनुमानके अहारोंसे झंकरका एय टूट गया। उनके आयुव “निष्फछ. हो गये | उनका शरीर हि] भ्रक्तराज धनुमान्‌ जजर हो गया | नन्‍्दी भागनेका उपक्रम करने छगा। शांकरने हलुमानको पुकारकर कहा--८वीर ! तुम घन्य हो, तुम्हारी मगवदूभक्ति धन्य है । मै तुम्हारी चीरता और मगवत्परायणता देखकर प्रसन्‍न हूँ । जो वरदान यज्ञ, तपसे नहीं ग्राप्त हो सकते, वह मै तुम्हें देनेके लिये तैयार हूँ । माँगो, माँगो, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग छो ।! हनुमानने कह्ा---शंकर ! मगवान्‌ रामकी ऋृपासे मुझे किसी वस्तुकी कामना नहीं है, तथापि आज तुम मुझसे युद्धमें प्रसन हुए हो, इसलिये मैं तुमसे कुछ काम छँगा । देखो, युद्धमें पृष्कल मर गये हैं, शत्रुघ्न मर्च्छित हो गये हैं, सैनिक क्षत-विक्षत होकर रणमूमिमें पड़े हुए हैं, तुम अपने गणोंके साथ इनकी रक्षा करो | मैं ओषबियाँ बान्रेके लिये द्रोणाचलपर जाता हूँ । यदि देवता विरोध करेंगे तो सम्भव है वहाँ भी युद्ध करना पढ़े, विलम्ब हो जाय | तबतक इन वीरोंका कोई अनिष्ट न होने पावे ।? झंकरने खीकार किया और हनुमानने यात्रा की । हनुमानने क्षीरसागरके पास जाकर द्रोणाचछको अपनी पूंठमें छपेट छिया | वे उसे उखाड़कर वहाँसे चलनेहीवाले थे कि उसके रक्षक देवताओने उनपर आक्रमण कर दिया, परंतु इलुमानके सामने उनकी एक न चली, वे घायल होकर भग गये | जब उन्होंने इनद्रसे जाकर कहा कि एक वानर द्रोणाचछकों लिये जा रहा है. और हमारे अज्न उसपर काम नहीं करते, तब वे घबड़ाकर अपने कुल्युरु चुहल्पतिके पास गये । बृहस्पतिन हनुमानका पूरा पर्चिव बताकर उन्हें प्सन्‍न करनेकी ग्रेरणा की । इद्धने कहा--मंगवन्‌ | यदि; हचुमान्‌ द्रोणाचडको उखाड़ ले भक्तराज हनुमान दै० जायेंगे तो हमारे देवता तो मर ही जायँँगे; क्योंकि वही हमलेगोंका जीवनाधार है | कोई ऐसा उपाय कीजिये कि हनुमानका काम भी बन जाय और हमारी ओषधियाँ भी सुरक्षित रहें 0 बृहस्पति इन्द्र और देवताओंको साथ लेकर हथुमानके पास गये । उनसे बहुत रोये-गिड़गिड़ाये, अपने अपराधको क्षमा कराया और उनकी अमिलाप्रा परर्ण होनेका वरदान देंकर उन्हें मृतसल्लीबनी ओषधि दे दी । हनुमान्‌ उसे लेकर रणभूमिमें पहुँचे । चारों ओर हनुमानकी जयघ्वनिं होने छगी। वे ओषधि लेकर पुष्कक- के पास पहुँचे । पुष्कल मर चुका था, उन्होंने ओपबिका प्रयोग करते हुए कहा---यदि मै मन, वाणी तथा कमसे भगवान्‌ रामकों ही जानता होऊँ, उन्हींकी आज्ञका पालन करता होऊँ और मेरी इष्टिमें उनके अतिर्कत्ति और कोई वस्तु न हो तो इस ओषधिसे पुण्कल जीवित हो जायें /% पछिर घड़से जोड़ते ही पुण्कल जी उठे और शंकरसे छड़नेके लिये दौड़े। हनुमान्‌ शल्रुष्नके पास गये । शत्रुष्न मूर्च्छमें 'राम-राम', (घघुनन्दन-रघुनन्दरर आदि बोल रहे थे और कमी-कमी उनकी लीलाओंका पल्यप भी करते थे | [ हनुमानने ओषधिका प्रयोग करते हुए कहा--] यदि भगवानकी झपासे मै नित्य अहमचारी हूँ और मेरा त्रह्मचय कभी भज्ञ नहीं हुआ है तो शत्रुष्न अभी जीवित हो जायें !! प॑ शन्रुध्न उठ बैंठे और 'शिव कहाँ हैं, मै अभी मार डाढूँगा) & यद्यई॑ सनसा वाचा करमंणा राघव प्रति। जानामि तहि एतेन मेपजेनाश जीवतु ॥ यद्यईं अझ्षयय च जन्मपर्यन्तमुग्रतः | पाल्यामि तदा बीरः शन्रुध्नो बीवतु क्षणाद्‌॥ डरे भकराज दनुमान्‌ यह कहते हुए युद्ध-भूमिकी ओर दौड़े | पुनः घमासान युद्ध हुआ, बीरमणि मृर्च्छित हो गये; शंकर और शल्रुष्न लड़ने लगे | अब शंकर- के बाणोसे शन्रुष्न व्याकुल हो गये, तब हचुमानने कहा कि 'अब अपने मेयाकी याद करो, तव काम बनेगा ? शब्रुष्नने वैसा ही किया और भगवान्‌ राम चहाँ उपस्थित हो गये, फिर तो शंकरने बड़ी श्रद्धा- मक्तिसे उनकी स्तुति की और अपने इस अपराधको अमार्जनीय बतवाकर क्षमा-प्रार्थना की । भगवान्‌ रामने कह्टा---देवाविदेव महादेव | आपने बड़ा अच्छा काम किया है। यह तो देवताओंका धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंकी रेक्षा करें, तुम मेरे हृदयमें हो और मैं तुम्हारे हृदयमें हूँ, हम दो थोड़े ही हैं| जो हम दोनोंमें अन्तर देखते हैं, वे नरकोंमें जाते हैं । जो तुम्हारे भक्त हैं, वे ही मेरे भक्त हैं। मेरे मक्त भी अत्यन्त मक्तिपर्वक तुम्दें नमस्कार करते हैं |& मगवानने सब मरे हुए और घायल वीरों- का स्पर्श करके उन्हें जीवित किया] राजा वीरमणि अपना सबंख समर्पित करके रामका भक्त हो गया । हनुमान्‌ घोड़ेके साथ आगे बढ़े | $ 4 रे हर ५ #£ देवानामयमेवास्ति. धर्मों भक्तस्थ पालनम्‌ | त्वया साधु छत कर्म यद्भधको रक्षितोड्घुना॥ ममासि हृंदये शर्वे भवतो छृदये त्वहम। आवयोरन्तरं नातस्ति मृढा। प्रश्यन्ति दुर्घियः॥ ये भेद विद्धत्यद्धा आवयोरेकरूपयो: | कुम्भीपातेशु पच्यन्ते नराः कच्पसदर्षकम्‌ ॥ ये खद्धक्तासत - ण्वासन्मद्धका घर्मसंयुताः। “मद्धक्ता अपि भूंयल्या भक्त्या तत्व नतिड्धराः॥ भक्तराज़ हनुमान श्र जब भगवान्‌ राम सम्प्रणं बातर-भाद्ठुओंकों विदा करने छगे और हनुमानकी भी वारी आयी, तब वे भगवानके चरणोंपर गिर पड़े । उन्होंने प्रार्थना की कि “भगवन्‌ ! में आपके चरणोंमें दी रुँगा # मगवानने खीकृति दे दी | ऐसे भक्तोंको भञ्ञ भगवान्‌ कब छोड़ते हैं ! जब॒भगवानकी ली गके संबरणका समय आया, तब भगवानने हनुमानकों बुद्कर कहा---हनुमान्‌ ! अब तो मैं अपने लोकमें जा रहा हूँ; परंतु तुम दुःख मत मानना | यह अप्रिय काय तुम्हें करना पड़ेगा | तुम पृथ्वीमें रहकर शाल्तिका, प्रेमका और ज्ञानका प्रचार करों | जब तुम्र मुझे स्मरण करोंगे तब मैं तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा | जहाँ-जहाँ मेरी कथा हो, मेरा कीरन हो, वहाँ-चहाँ तुम उपस्थित रहना, मैं तुमसे अलग थोड़े ही होता हूँ । यह तो केवल मेरी एक लीग है | हनुमानने हाय जोड़कर कहा---प्रमो ! मैं रूँगा, जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी बहाँ-चहाँ जाकर सुनूँगा | वह ही मेरे जीवनका आलम्बन होगा 0 भगवान्‌ वहुत ही प्रसन्‍न हुए ! मगवान्‌ रामने एक ऐसे ही प्रसंगपर हनुमानूसे कहा था--हनुमान्‌ ! इस वोकर्में जवतक मेरी कया रहेगी, त्रतक तुम्हारी कीति और तुम्हारा जीवन रहेगा | जबतक जगत्‌ रहेगा, तवतक मेरी कथा रहेगी । तुमने जो बड़े-बड़े मेरे डपकार किये हैं, उनमेंसे एक-एकक्े वदलेमें मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी तुम्हारा वदल्य नहीं चुका सकता । तुम्हारे उपकारका बढदल्य मैं न दे सकूँ, यही ठीक भी है। तुम्हारे जीवनमें कभी ऐसा अबसर ही न आबे क्षि तुम्दें प्रत्युपकारकी आवश्यकता हो । क्योंकि मनुष्य विपत्तिमें ही प्रत्युपकारका पात्र दद३ भक्तराज इजुमान्‌ होता है ।# भगवान्‌ रामने अपनी छीछा संवरण कर छी, परंतु उनके भक्त भगवान्‌ हशंकरकी लीला चाछू रही । 'राम ते अधिक राम कर दासा +-ककनमकुनम दफन (9) भगवान्‌ रामके परमवथाम पथारनेके पश्चात्‌ हनुमानका एकमात्र काम रहा भगवानके नाम, लीला और ग़ुर्णोका कीतेन एवं श्रवण । जहाँ-जहाँ सत्सड् होता, वहीं हनुमान्‌ उपस्थित रहते । आर्थ्पिण ऋषिके साथ किंपुरुषवर्षमें रहकर प्रायः ही भगवानके गुणानुवाद छुना करते । गन्वबोंकी खरलहरी जब अपने रसमें त्रिमुवतको उन्मत्त किये होती, तब हनुमान्‌ उनके अम्रतमय संगीतसे निःसत भगवान्‌ रामकी छीछाका साक्षात्‌ अनुभव करते होते । युग- पर-युग बीत गये; परंतु एक क्षणके ड्यि भी उन्हें भगवानकी विस्पृति न हुई । मगवानके अतनिर्कि और कोई भी उनके सामने न आया | वैबल्लत मन्त्रन्तके अदठाईसर्वे दवापरमें मगवान्‌ श्रीकृष्णका अवनार हुआ । श्रीकृष्ण ओर श्रीराम एक ही हैं, दो नद्दीं । वे व्रत र तीस अ+>-२«-+०७+ ०» न» न ज७ न ५७४५३ भ आम नममकन, # चरिष्यति कथा यावदेषा छोके च॑ मामिका। तावतते भविता कीति: शररीरेषप्यसवस्तथा॥ ल्ोका हि यावत्स्थास्यन्ति यावस्य्यात्यति मे कथा। एक़ैकस्मोपकारस्थ पाणान्दात्याप ते कपे ॥ शेषस्वेहोपकाराणां. भवाम ऋणिनो चयम | मदजझ्गे जीणंतां यातु यलयोपकृत॑ कपे ॥ नरः प्रत्पुपकाराणामापत्खायाति पात्रताम्‌ । कक & ७७ के ७ ७ ७ ७० +क ्७०क छः ७ | ---वाल्मीकीयरामादण खेऊराज इजुमान द्ड मत्य अपने परमप्रिय भक्त हनुमानके विना कैसे रहते ? उन्होंने इलुमानको बुलानेका संकल्प किया; परंतु इसके साथ भी तो कुछ छीला होनी चाहिये, हनुमान्‌की महत्ता प्रकट होनी चाहिये । भपना कह्ल्वनेवालोमें जो दोष-दुर्गुण भा गये हैं, उन्हें दूर करना चाहिये । भगवानके संकल्प करते ही हनुमान्‌ द्वारिकाके पास ही एक ठपवनमें आ बिराजे | भगवज्नामका संकीतंन करते हुए फल छाने छगे, डालियाँ तोड़ने छगे | उन दिनों सत्यमामाके लिये भगवानने पारिजात हरण किया था | उन्हें गये था कि भगवानका सबसे अधिक ग्रेम मुझपर ही है, मैं सबसे सुन्दरी हूँ । उन्होंने बात-ही-बातमें एक दिन कह भी दिया कि क्‍या सीता मुझसे अधिक सुन्दरी थीं कि उनके लिये आप वन- बन भठकते रहे १ भगवान्‌ चुप रहे । चक्रके मनमें भी गये या कि मैने इन्द्रके वज्रको परास्त कर दिया । गरुड़ भी सोचते थे कि मेरी ही सहायतासे श्रीकृष्णने इन्द्रपर विजय प्राप्त की है | भगवान्‌ औीकृष्णने सोचा कि इन तीनोंका गबे नष्ट होना चाहिये | ये मेरे होकर अभिमानी रहें, यह मुझे सह्य नहीं है । धन्य भगवानकी कृपा ! मगवानने गरुड़को बुलाकर आज्ञा की कि गढड़ ! द्वारिकाके डपवनमें एक वानर आया है, उसे पकड़ वाओ। देखो, उसे पकड़नेका तुमर्म साहस हो तब तो भकेले जाओ, नहीं तो सेना मी साथ ले जाओ | गरुड़के मनमें यह बात आयी कि एक तो भगवान्‌ साधारण-सा वानर पकड़नेके छिये मुझे भेज रहे हैं, दूसरे सेना भी साथ ले जानेको कहते हैं, यह मेरा कितना बड़ा द्५ भक्तराज हजुमांने अपमान है | मैं उस वानरकों चूर-चूर कर दूँगा। गरुड़ने अकेले जाकर देखा कि हनुमान्‌ उनकी ओर पीठ करके फल खा रहे हैं और बड़ी मस्तीसे 'राम-राम! का वीत॑न कर रहे हैं। उन्होंने पहले डॉट-फटकारकर हनुमानकों ले चलनेदी चेष्टा की, परंतु हनुमान ट्स-से-मस नहीं हुए | जब गरुड़ने उनपर आक्रमण किया तो पहले बहुत देरतक जेंसे छोग नन्‍ही-नन्‍्ही चिडियोंसे खेला करते हैं, बैसे हलुमान्‌ खेलते रहे; परंतु जब गरुड़ न माने, तव उन्होने अपनी पूँछ- में उन्हें लपेटकर तनिक-सा कस दिया । वे छठपटाने लगे | उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका नाम बताकर कहा कि उनकी आज्ञासे मैं आया हूँ, उन्होने तुम्हें बुलाया है, वे साक्षात्‌ नारायण हैं, चलो । हनुमानने गछड़को छोड़कर कहा--“भैया | यद्यपि राम और ऋष्णमें कोई भेद नहीं है, दोनो एक ही हैं तथापि मैं तो सीतानाथ श्रीरामका हूँ, मेरे हृदयमें उन्हींका पक्षपात है। मैं श्रीकृष्णेक पास क्‍यों जाऊँ? हचुमानने यह कहकर मानो मगवानकी छीलामें सहयोग दिया | अभी गरुड़का गद टूटा नहीं था। वे सोचते थे कि अगर मैं पकड़ न गया होता तो हचुमानको वछात्‌ छे चछ सकता। उन्होंने दुबारा आक्रमण किया | अभिमान अंधा बना देता है। श्रीकृष्णणा दूत समझकर हृचुमानने उनपर जोरसे आघात नहीं किया, पर हल्के दाथसे पकड़कर समुद्रकी ओर फेंक दिया। समुद्में गिरनेपर गछड़कों दिग्ल्रम हो गया, वहुत देरतक चहीं छठपटाते रहे । जब उन्होंने भगवानका स्मरण किया, तब कहीं ह्वारिकाका प्रकाश दीख पड़ा और वे श्रीकृषप्णके पास आये। भ्ष० हू० ५०- अधिक-। तर ० नि भेक्तेराज हनुमान दि सब्र बात सुनकर श्रीकृष्ण वहुत हँसे | अभी गढुइके मनमे तेजीसे उड़नेका गये वाकी ही था। वे सोचते थे कि उड़नेमें मेरा मुकाबिछा वायु भी नहीं कर सकता । भले ही हनुमान्‌ वलूमें मुझसे बड़े हां । भगवानने कहा---गरुड़ ! इस वार जाकर तुम कहों कि तुम्हारे इटद्व मगवान्‌ श्रीराम तुम्हें बुला रहे हैं । शीत्र ही चलो । उन्हें अपने साथ ही ले आना | अब वे तुम्हे कुछ नहीं कहेंगे, तुम्हारा बड़ा आदर करंगे यद्यपि गठड़ जानेमें ढरते थे, फ्रिर भी अपनी उड़नेकी शक्ति दिखलानेके छिये वे गये | भगवानने सत्यमामासे कहा कि 'सीताका रूप घारण करके आओ, हनुमान्‌ आ रहा है. ॥ चक्रसे कहा कि 'सावधानीसे पहसा दो, कोई भी द्वारिकामें प्रवेश करने न पावे 7 सुदशनचक्र सावघानीसे पहरा देने छगा और सत्यभामा सज-धजकर अपने सौन्दर्यके गर्बमें मत्त होकर आ बैठी । भगवान्‌ श्रीकृष्ण घनुप-बाणघारी रामभद्र हो गये । इस बार गरुड़की हिम्मत हनुमानके पास जानेकी न पड़ी | उन्होंने दूरसे ही कहा कि 'भगवान्‌ श्रीराम आपको शीघ्र ही बुला रहे हैं। यदि मेरे साथ ही आप चल सकें तो चल, नहीं तो मेरे कंधोंपर बैठ जायूँ, में लेता चढ्०ँ ? हनुमानने बड़ी प्रसनतासे कहा--- 'अद्दोमाग्य | भगवानने मुझे बुछ्मया है.। तुम चलो; मैं आता ही हूँ / गछड़ने सोचा कि ये क्या कह रहे हैं । मुझसे पीछे चछकर ये कितनी देरमें पहुँचेंगे | परंतु वे डरे हुए थे, हनुमानसे फिर कुछ कहनेकी उनकी हिम्मत न पड़ी । वे चुपचाप चंछ पढ़े । सोच रहे थे कि भगवानके पास चछकर अपनी तीत्रगतिका प्रद्शन करूँगा ! द्द्छ भक्तराज्ञ इन्तमान हनुमान्‌ गरुड़से बहुत पहले द्वारिकामें पहुँच गये । हनुमानकी दृश्टिमें वह द्वारिका नहीं थी, अयोध्या थी। फाटकपर चक्रने अकड़- कर कहा कि मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा? हनुमानने कहा--- “तू भगवानूके दरनमें विव्य करता है और उसे पकड़कर मुँहमें डाछ लिया | मगवानके महलमें जाकर उन्होंने देखा कि भगवान्‌ श्रीराम सिंहासनपर विराजमान हैं । उन्हें माता सीताके दशैन न हुए । हनुमानने भगवानके चरणोमें साष्ठाद्न प्रणाम करके प्रछा-- महाराज ! आज माताजी कहाँ हैं ? उनके स्थानपर यह कौन बैठी हैं? आपने किस दासीको इतना आदर छठे रक्‍्खा है ? सत्यमामा छज्निन हो गयीं | उनका सौन्दर्यमद्र नष्ट हो गया। भगवानूने कहा---हनुमान्‌ * तुम्हें किसीने रोका नहीं ? तुम यहाँ केसे आ गये ? हनुमानने मुँहमेंसे चक्कर निकालकर सामने रख दिया । चक्र श्रीहत हो गया था । जब दौंडते-हाँफते गरुड़ पहुँचे तब उन्होंने उेख कि हनुमान तो पहलेसे उपस्थित हैं | उनका मस्तक नत हो गया। इस प्रकार हनुमानकों निमित्त बनाकर भगवानने तीनोका गन्ने नष्ट किया और हनुशनकों द्ारिकाके पूवद्वाएपर पुरीकी रक्षाक्र शल्य नियुक्त किया | | ८ रेप ५ २८ उन दिनो पाण्डव काम्यक्वेसलस थे। एक हिन द्रापदीक सामने हवामें उड़ता हुआ एक वड़ा हो चुन्दर और खुगख्धियुक्त पुष्प आया । द्वौपदीने मीमसे और छसेके विये आथना की और वे जिस ओरसे फूल आया या, उस ओर चल पड़े | भीमको अपने बलका धमंड था और वे कोई काम करनेमें कमी कुछ सोचते- भक्तराज हजुमान ८ बिचारत नहीं थे | हनुमानने सोचा कि भीम मेरा ही भाई है। डसके मनमें गये नहीं होना चाहिय और इस सनथर वह जिधर बढ़ रहा है, उपर बड़ा खतरा है, कहीं नासमझीसे उसका अनिष्ट न हो जाय | हनुमान्‌ आकर रास्तेमें लेट गय और अपना लता लंगूर फैठा दिया । भीमने हनुमानकों पहचाना नहीं । उन्होंने कहा---बानर | अपनी पँछ ह॒ठा छे, नहीं तो मैं उसे तोड़ डाद्ँगा हनुमानने अपनेको पीड़ित-सा बना लिया और कहा--भाई ! मेरी पँछ बहुत बड़ी है, तुम अभी जवान हो, बली हो, इसे लॉधकर चले जाओ या इसे हटा गो ।' भीमने कहा--तुम्हारी पूछ चहे जितनी वड़ी हो, जैसे मेरे बढ़े भाई हनुमानने समुद्र लावा था वैसे ही में तुम्हारी पूँछ लॉध जाता; परंतु सबके शरीरमे भगवान्‌ ते हैं, इसल्यि किसीकों छाघना उचित नहीं हैं | मैं तुम्हारी पूँछ हटा देता हूँ ।! उन्होने पहले एक हाथ छाया; परंतु पूछ न हिली, दोनों हाथ छगाया, फिर भी वह जेसी-की-तसी अठछ रही । उनके शरीरमें पस्तीना आ गया | वे थक गये, परंतु इछकी न हटा सके । अब भीमको ध्यान आया | अमिमान टूटते ही वे हनुमानको पहचान 7ये । उन्हाने अपने क्ृत्यपर पश्चातताव किया, श्षमा माँगी और हलुमानने बड़े प्रेमने उन्हें गले छगाकर भगवान्‌ रामकी कथा सुनायी । भीमसेनके बहुत आग्रह करनेपर हनुमानूने अपना बह भीतण रूप दिखाया, जिससे उन्होने समुद्र पार क्रिया था। फिर छोटे रूपमें हो गये और भीनकी अनेकों प्रकारके उपदेश दिये | उन्होंने कहा---अब अधिमान कमी न करना । मेरे मिलनेका हाल किसीसे मत कहना और कोई आपत्ति पढ़े तो दबे भक्तराज हनुमान मेरा स्मरण काना ) कहो तो में हस्तिनापुर जाकर साश नगर अभी नष्ट कर दूँ और घृतराष्ट्रके पुत्रोंकी मार डाढँ। दुर्योधनको बाँध लाऊँ | जो कहो मैं करनेको तैयार हूँ ७ भीमसेनने कहां--- धआपकी सहायता पाकर हम सनाथ हुए, आपकी सहायतासे ही हम झान्रुओंको जीत सकेंगे । हनुमानने कहा, 'भीम ! जब तुम शन्रुओंकी सेनामें घुसकर सिंहनाद करोगे तो अज्ञुनकी ध्वजाके ऊपर रहकर मैं भी ऐसा शब्द करूँगा कि तुम्हारे शत्रु उसे सुनकर मृतप्राय हो जायँगे !” हनुमानने भीमको आहछिड्लन किया और बहाँसे अन्तर्थान हो गये | उनके वतलाये हुए मार्गसे जाकर भीमने बह पुष्प प्राप्त किया । . 9८ रू २६ >६ हनुमानमें अमिमानकी तनिक भी मात्रा नहीं है | हनुमानके जीवनमें कभी अमिमान ठेखा ही न गया, इसीसे भगवान्‌ अपने भक्तोके अभिमानकों दूर करनेका काम प्रायः हनुमानसे ही लेते है । कहते हैं कि अजुनको भी एक बार अपने चाणवलका अभिमान हो ग्या था। उन्होंने बात-ही-वातमें एक दिन श्रीकृष्णसे कहा कि तुमने रामावतारमे समुद्रपर पुछ बाँवनेके डिये इतना आयोजन क्यो झ्था £ बाणोसे पुल बाँध देते । वेचारे वानरोंकों झूठ-मृठ परेशान किया !! भगवान्‌ हँसने छगे, उनका हँसना ही तो लोगोंकों भुलावा देनेवाली माया है. । भगवानने कहा---“अच्छा, तुम वाणोसे समुदके एक छोटे- से अंशपर पुल बाँधों । मैं तुम्हे बताता हूँ ।! अर्जुनने आनन- फाननमें दैसा कर दिया । भक्तराज धनुमान ० भगवानने हनुमानका स्मरण किया, वे तुरंत आा पहुँचे । भगवानकी आज्ञासे वे वाणोंके पुलपर चढ़े । उनके चढ़ते ही पुल चरचराकर टूटने छगा, वे उसपरसे उतर आये । अजुनने देखा कि भगवानूकी पीठपर खून छगा हुआ है | पूछनेपर माठ्म हुआ कि यदि भगवान्‌ अपनी पीठ छगाकर उस पुछकों न रोक रखते तो वह हनुमानको डिये-दिये धस जाता और अजुनकी बड़ी हँसी होती | भगवानने कहा--ऐसे-ऐसे अनेकों वानर थे, वे वाणके पुल्परसे कैसे जाते | अज्जुनकी समझमें बात आ गयी | उनका गई भड् हो गया | अजुनने भगवानकी आज्ञासे हलुमानकी वड़ी आराधना की, - उनके मन्त्रोके पुरश्चरण किये |# हनुमानने वर दिया कि मैं सदा तुम्हारी सहायता कहूँगा और भावी युद्धमें मैं तुम्हारे रथपर बैठकर 8-4 ५ ३५७ 0 ७. वाणोंसे तुम्हारी रक्षा करूँगा |? कहते हैं कि भारत-युद्धमें अज्जुनके व 7 7 उक्त मन्त्र यह है. इनमते सद्मात्यकाय है फट ७ नरीतोपरण # उक्त मन्त्र यह है---“हनुमते रुद्वात्मकाय हुं फट |? नदीतीरपर, विष्णुमन्द्रिमि या निजंन अयवा किसी पर्वतपर एकाग्रचित्तते श्रोहनुमानजीका ध्यान करते हुए एक छाख मन्त्रोंका जप करना चाहिये | ध्यान यह है--- महाशेल समुत्पाव्य धावन्ते रावण प्रति | तिष्ठ तिएट रणे दुए घोरराव॑ समुत्युजन ॥ लाक्षारतारुण रौद्ं कालान्तकयमोपमम्‌ | ज्वलद्ग्निल्सन्नेज्र सू्यंकोटिसमप्रभम] अड्जदायेमंहावी रैवेश्तं रुद्ररूपिणम्‌ | एवं रूप हनूमन्तं ध्यात्वा यः प्रजपेन्मनुम्‌ हनुमानजी एक पर्ब॑ंतको उखाइकर रावणक्ी ओर दौड़ रहे ह और भीषण हुंकार करते हुए रावणको पुकारकर कह रहे हैं--*रे दुए ठहर | ठहर । उनका छलाखके सरसके समान छाल वर्ण हे--और वे कालान्तक यमके सहझशय हैं। उनके दोनों नेत्र अग्निके सदश जाज्वल्यमान हैं, करोड़ों सू्योके समान उनका तेज है; वे रुद्ररूपी हनुमान अज्ञदादि महान वीरोसे बिरे हैं | एर्‌ भंक्तराजे दजुमर्न, सबके रथ बहुत दूर-दूर जा गिरते थे, परंतु किसीके बाणसे अजुनका रथ पीछे नहीं हटता था। एक बार कर्णके वाणसे अ्जुनका रथ दुछ थोड़ा-सा पीछे हट गया, इसपर युद्धम्नम्िमं ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने कर्णकी भूपि-भ्रि प्रशंसा की | अजुनने पूछा---“भगवन्‌ ! मेरे बाणसे कर्णका रथ बहुत पीछे हट जाता है. और उसके बाणसे मेरा रथ वहुत थोड़ा-सा पीछे हटा है, फिर उसकी प्रशंसा करनेकी कया बात है ? भगवानने कह्य---“अज्ञुन ! तुम्हारे रथपर हलुमान्‌ चैंठे हुए हैं। नहीं तो अवतक तुम्हारा रथ भस्म हो गया होता । उनके बैंटे रहनेपर भी रथका पीछे हट जाना कर्णकी वहुत बड़ी वीरताका सूचक है ! अजुनका समाधान हो गया | महायुद्धके अन्तमें जब हनुमान्‌ अजुनके रथपरसे कूद पड़े तव उनका रथ जलकर राख हो गया । यह्द हनुमानका ही प्रताप था कि भर्जुन इतनी वीरताके साथ छड़ सके | ८ २ 4 ५ श्रीकृष्णके पुत्र प्रयुम्न दििजयके छिये निकले हुए थे । द्वारिका्में अश्वमेघ-यज्ञ होनेवाला था और उसीकी यह भूमिका थी । वे दिखिजय करते हुए हिरिण्मय खण्डमें पहुँचे | उस समय उनके साथ अजुन भी थे और उनके रथकी ध्वजापर हलुमावू विराजमान थे | हिरण्मय खण्डमें नछ-नीछके वंशजोंसे प्रयुम्नका बड़ा युद्ध हुआ | अज्ञुन भी लड़ रहे थे | वहाँके बीर वानर अजुन और प्रयुग्नके रथकों अपनी पूँछमें छपेटकर जमीनपर पटक देते ॥ बड़ा भयंकर संग्राम हुआ, अन्तमें हनुमानजी घ्वजापरसे कूद पढ़े और अपनी पृछमें सब वानरोंको समेट छिया | जब उन्हें माछ्म इआ भंक्तराज द॑नुमांन्‌ ७३ कि ये तो हनुमान्‌ हैं, तत्र वहाँके सव निवाप्तियोंने बड़ी श्रद्धा-भक्िसे हनुमान, प्रदुम्न और अजुनकी पूजा की । अनेको प्रकारके पदाथ भेंट दिये । वहाँसे फिर उन छोगोंने दूसरी ओर अ्स्थान किया । 2५ २९ रेप २ हनुमान कितने बड़े तत्त्ववेत्ता थे; इसका पता रामरहस्योपनिपदसे चलता है.। सनक, सननन्‍्दन, सनत्कुमार तथा सनातन चारों भाई उनसे राम-मन्त्रोंका रहस्य प्राप्त करते हैं । बढ़े-बढ़े ऋगि और अह्ाद उनके शिष्य है | खय॑ भगवान्‌ रामने उन्हें उपनिपदोंका तत्त बतत्यया है, जिनका वर्णन मुक्तिकोपनिषद्मं आया है और भी पुराणान्तरोमें मारुति-चज्ि विस्तारपूदक वर्णित हुआ है | यहाँ तो उनके जीवनकी कुछ ही घटनाएँ संक्षेपमें लिखी जा सकी हैं । भगवान्‌ मारुति कहीं गये नहीं हैं । यहीं हैं, आज भी हमारे बीचमे ही हैं | केवल हम उनको पहचानते नहीं | इसका कारण हमारी अश्रद्धा और अमक्ति ही है | तुलसीदास आई महात्माओंने इसी युगमें मारुतिके साक्षात्कार किये हैं | अब भी ऐसे साधक हैं, जो मगवान्‌ माठतिको आ्राप्त करते हैं । शाद्षोंमें उन्हें पानेके अनेकों मन्त्र और अनुष्ठान भी हैं । श्रद्धापूवंक उनका अनुष्ठान करनेसे मारुतिरायके ॥ -- ७ हो सकते हैं ।उनक्रेटअककि अति: शुद्ध होता है और उनकी कृपासे ल्‍ मिशिनिनिशिशिनिललिनिलािशकि मल शक मी ज लि जदकिकललिल जनक कल जला आए <७»<><><»९<०९><०९०६० ९><९०<०4०<०><०<०क+ परम नाप नल पा++ यमन सन एन यमन ८ समन नमन पर - कक न नम -क न पन-न न पीना ननान० पा पतन नानक कमान व नाना. ९५ <>4३०५३९०:३००-७-५३०:३०:२७2१% ९ 4%-९०:९० ९२% ९०९२ ३2३ ७०4 ० ९2 श० कट फीट के